शादी की तैयारी हो रही थी पर इतने बड़े आयोजन में चुटर पुटर काम तो कभी ख़तम ही नहीं होते. किसी के नए कपड़े आने बाकी हैं, किसी का मोबाइल नहीं मिल रहा, किसी के जूते नहीं मिल रहे, किसी की गाड़ी लेट आई है या फिर हलवाई के मसाले रख कर भूल गए वगैरा वगैरा. रावत जी की मुस्कराहट कभी आती थी और कभी चली जाती थी. शादी ब्याह में ये सब चलता ही रहता है. रावत जी के दो बेटों की शादी हो चुकी थी और ये तीसरी शादी इन की बिटिया प्रिया की देहरादून में हो रही थी. खुश भी थे पर बीच बीच में मुस्कराहट गायब हो जाती थी. इसका कारण इंतज़ाम की दिक़्क़त नहीं थी बल्कि इसका कारण कुछ और ही था - बंगाली दुल्हा.
सूरत सिंह रावत गढ़वाली राजपूत थे और उत्तराखंड के पौड़ी जिले के रहने वाले थे. दोनों बेटे फौज में थे और अपने अपने परिवारों सहित अलग अलग शहरों में पोस्टेड थे. अब छोटी बिटिया प्रिया ने बारवीं पास करने के बाद सॉफ्टवेयर का कोर्स किया, फिर एमबीए किया और फिर पुणे में नौकरी लग गई. बड़े भैय्या की इत्तेफाकन पोस्टिंग भी पुणे में ही थी. बड़े भाई को रहने के लिए क्वार्टर मिला हुआ था तो रावत जी को अच्छा लगा कि प्रिया फॅमिली में ही रह कर कुछ पैसे भी बचा लेगी. कुछ पैसे रावत जी ने भी बचा रखे हैं तो कुल मिलकर शादी बढ़िया हो जाएगी. पहाड़ी राजपूतों के कई रिश्ते भी आ रहे थे. कुंडली मिलाने का काम भी बीच बीच में चल रहा था हालांकि प्रिया ने अभी शादी के लिए हाँ नहीं की थी. फोन पर कुछ इस तरह से बातें होती थी :
रावत जी - प्रिया बेटी हाल ठिक ठाक छिं ? नौकरी ठिक चलणि ? ले अपण माँ से बात कर.
मम्मी जी - प्रिया बेटा ब्यो क बारम के सोच ? रिश्ता आणा छिं पत्री भी मिलनी च. कब करण ब्यो ( प्रिया ब्याह के बारे में क्या सोचा है ? रिश्ते आ रहे हैं पत्री भी मिल रही है. कब करना है ब्याह ) ?
प्रिया - के जल्दि होणी तुमथे ? अभी निं करण ब्यो ( क्या जल्दी है तुमको ? अभी नहीं करना है ब्याह ) !
मम्मी जी - लो फोन ही काट द्या ! ब्यो मा अबेर होणी नोनी कतई न बुनी ( लो फोन ही काट दिया ! ब्याह में देर हो रही है लड़की कतई न बोल रही है ).
जनवरी में पता लगा कि प्रिया ऑफिस के किसी सुदीप्तो भट्टाचार्य नाम के लड़के को लेकर भाई के घर आई थी. वहां भाई भाभी ने सुदिप्तो की अच्छी खातिरदारी की और उसके जाने के बाद मम्मी पापा को फोन करके बता भी दिया. बस तब से ही मम्मी जी और पिता जी की परेशानी चालू हो गई थी. कुछ इस तरह के डायलॉग आपस में चल रहे थे :
- पहाड़म क्या रिश्ता नि मिलना छिं जो तू देशिम जाणी छे ( पहाड़ में रिश्ता नहीं मिला जो तू दूसरे देश में जा रही है ) ?
- बोली भाषा फरक च हमुल कण के बचाण ऊँक दगड़ी ( बोली भाषा फर्क है कैसे बातचीत होगी उनके साथ ) ? ?
- न बाबा इन ना केर ( न बाबा ऐसा न कर ) !
- वो बामण छिन हम जजमान ( वो ब्राह्मण है और हम राजपूत यजमान ) ?
- सब पहाड़म थू थू व्हे जाएल ( सारे पहाड़ में थू थू हो जाएगी ).
- कन दिमाग फिर इ नोनिक जरूर बंगालिल जादू केर द्या ( कैसे दिमाग फिर गया इस लड़की का. जरूर बंगाली ने जादू कर दिया ) !
पर प्रिया ने तो अपने फैसले की घोषणा कर दी थी. भाइयों ने भी सपोर्ट कर दिया और अब शादी होने वाली थी. शादी की गहमा गहमी में रावत जी को बीच बीच में गुस्सा आ जाता था. इस लड़की ने ये क्या किया ? बंगालियों में कैसे एडजस्ट होगी ? पेैल दिन ही ईंक टेंटुआ दबैक गदनम धोल दींण छ ( पहले दिन ही इसका टेंटुआ दबा के नदी की धार में डाल देना था ) !
मम्मी की चिंता लेन देन और पूजा पाठ को लेकर थी. पता नहीं दुल्हे की ढंग से पूजा भी की होगी या नहीं. जो भी हो अपनी मान्यताएं तो पूरी करनी थी. लड़की का हल्दी हाथ का कार्यक्रम शुरू हो गया.
रावत जी प्रिया की मम्मी से बोलते रहते,
- तू अपण बोली भाषा ठिक केर ले. यत अंग्रेजीम बच्या या बंगलीम ( तू अपनी भाषा ठीक कर ले. या तो अंग्रेजी में बात कर या बंगाली में ) !
- सुपरि चबाणी कु जाणी के बुनी ? लड़का त हमार जन हि छ पर बचाणा कि कुछ पता नि चलणु ( सुपारी चबा के जाने क्या बोलती है समधन. लड़का तो हमारे जैसा ही है पर बातचीत समझ नहीं आ रही है) ?
उधर प्रिया अपने ही चक्कर में लगी हुई थी. अग्नि के सात फेरे जितनी जल्दी ख़तम हो जाएं उतना ही अच्छा है. वरना रिश्तेदारों की टीका टिप्पणी से मम्मी और पिताजी परेशान हो जाएंगे. उसने पंडित जी को पकड़ा,
- बामण बाडा जी मंगलाचार और बेदी शोर्ट-कट म हूण चेणी. टाइम अद्धा घंटा कुल, ठीक च ( ब्राह्मण देवता मंगलाचार और फेरे शोर्ट-कट में होने हैं. टाइम आधा घंटा है केवल. ठीक है ) ?
इस पर पंडित जी ने पहले ना नुकुर तो की पर मौके की नज़ाकत देखकर तैयार भी हो गए. अपनी पोथी निकाल कर मुख्य मुख्य मन्त्रों वाले पन्नों पर कागज़ के झंडियाँ लगा दीं. फिर सभी मन्त्रों का समय जोड़ा और कहा,
- चल ठिक च अद्धा घंटम कारज व्हे जाल. तू खुस रओ ( चल ठीक है आधे घंटे में कार्य हो जाएगा. तू खुश रह ) !
फेरों का कार्यक्रम पचीस मिनट में ही निपट गया और रावत जी, मम्मी जी और प्रिया ने चैन की सांस ली. मेहमानों ने पकवानों का स्वाद लिया, लिफाफे दिए और सरक लिए. रावत जी और मम्मी जी प्रिया को बार बार धड़कते दिलों से आशीर्वाद देते रहे :
- जा बुबा, जा प्रिया, जा बेटा तू सुखी रओ !
- चिरंजीव रओ !
- हमर पहाड़ियों क नाम न खराब करीं ( हम पहाड़ियों का नाम नहीं खराब करना ) !
- खूब भलु बनि कर रओ ( खूब भली बन कर रहना ) !
प्रिया की विदाई तो हो गई पर पर दिल की बैचेनी विदा नहीं हुई. तीन महीने भी नहीं गुज़रे कि दोनों ने पुणे की टिकट कटा ली. प्रिया से मिलकर दोनों आश्वस्त हो गए. जवांई राजा से मिलकर भी तसल्ली हुई की ठीक ठाक है. जवांई बाबू ने प्रस्ताव किया की सब मिलकर कलकत्ते और खड़गपुर घूम के आते हैं और उनका घर भी देख कर आते हैं. हवाई जहाज में रावत जी और मम्मी जी पहली बार बैठे बहुत से मंदिर देखे, समुंदर देखा, पानी के जहाज में सैर की और समधी समधन से मिले. तबियत खुश हो गई.
लौट कर मम्मी जी ने रावत जी से कहा,
- जवें भलु आदिम च इन खुजाण तुमार बस म भी निं छ. सब त ठिक चलणु हम सुद्धि घबराणा छै. नोनि सुखि च.( जवाईं भला आदमी है इस जैसा खोजना तुम्हारे बस का भी नहीं था. सब ठीक चल रहा है हम यूँही घबरा रहे थे. लड़की सुखी है ).
रावत जी ने जवाब दिया,
- चल भग्यान सीधा हरिद्वार जौला और डुबकी लगौला ( चल भाग्यवान सीधा हरिद्वार चलें और डुबकी लगाएं ) !
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हर हर गंगे |
गायत्री वर्धन की कलम से *** Contributed by Gayatri Wardhan