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Wednesday, 20 May 2020

बूट

परिवार बड़ा था - हम सात भाई बहन, मम्मी, दादी और पिताजी. परिवार की आर्थिक साइकिल खींचने वाले अकेले पिताजी ही थे. बचपन में तो पता नहीं लगा की तनखा क्या होती है और 'पर कैपिटा' खर्च क्या होता है. उस समय के अनुसार ठीक ठाक ही रहा होगा. पर कभी कभी महसूस जरूर हो जाता था. मसलन सात बरस की उमर में एक बार बूट लेने की जरूरत पड़ी. मन में एक पिक्चर बनी हुई थी की जैसे ही दूकान के अंदर जाएंगे एक आदमी मुझे लाल सोफे पर बिठाएगा, फिर एक ख़ास तरह के स्टूल पर मेरा पैर रख कर नाप लेगा, फिर नया चमकता हुआ काला बूट पहनाएगा और पूछेगा 'कैसा लगा?'.

एक हफ्ते से तो मैं कह रहा था कि काले बूट लेने हैं पर बाज़ार जाने का मुहूर्त ही नहीं निकल रहा था. एक दिन घोषणा हो गई की इतवार को पापा के साथ जाना और ले आना. अगले तीन दिन बड़े अच्छे गुज़रे. इन तीन दिनों में पड़ोस हो या स्कूल, बस सबके बूटों को देखता रहा. ये वाला ठीक है! ये नहीं चलेगा! 

सन्डे को दोपहर बाद पिताजी ने साइकिल निकाल ली. मैंने जल्दी से साफ़ करनी शुरू कर दी. पिताजी ने छोटी वाली गद्दी आगे कस दी.
- मैं नहीं बैठूँगा इस पर!
- बेटा परेड तक जाना है तू पीछे बैठा बैठा सो जाएगा और फिर गिर गिरा जाएगा. जाते वक्त पीछे बैठ जा और वापसी में आगे. ठीक है?
- हूँ.( ठीक है.वापसी में अँधेरा हो जाएगा कोई देखेगा तो नहीं).
मर्रे कंपनी, फूलबाग, बड़ा चौराहा होते हुए साइकिल कानपुर के परेड ग्राउंड की तरफ बढ़ चली. परेड पहुंचे तो मैदान में बाज़ार लगा हुआ था. जूते वालों की दुकानें एक तरफ लगी हुई थी. मन में मायूसी छा गई यहाँ कौन सोफे में बिठाएगा. यहाँ तो दूकानदार गंदे से कपड़े पहने 'आ जाओ आ जाओ' चिल्ला रहे थे. तीन दुकानें में बात नहीं बनी चौथी में सौदा पट गया. अब साइकिल घर की तरफ वापिस दौड़ने लगी. बैठे बैठे विचार उमड़ रहे थे कि दोस्त क्या कहेंगे,
- अच्छी दूकान से नहीं लिया? 
- परेड तो चोर बाज़ार है. 
- नहीं नहीं बढ़िया लग रहे हैं! 
- चमक रहे हैं! सोल देखो कितना मोटा है!   
- पर तुम्हारे पास कम पैसे हैं नहीं तो दूकान में इससे अच्छा मिल जाता. 
 
तब तक पिताजी ने टोका - सोना नहीं बेटा बस पहुँचाने वाले हैं. 
घर पहुँच कर सबने जूतों को हाथ में उठा कर, घुमा फिरा कर देखा और  खूब तारीफ की. हिदायत भी मिली की पानी में नहीं डालना, ठुड्डे मत मारना पत्थरों को. अच्छी चीज़ मिली है ढंग से रखना. थोड़ी तसल्ली हुई.

पर क्या अच्छी चीज़? दो महीने बाद सोल निकल गया. सबको जवाब भी देना पड़ा की बूट पानी में नहीं डाला था. अपने आप टूटा है मैंने नहीं तोड़ा है. बहुत दिनों तक नाइंसाफी होने का ख़याल दिल में रहा. छोटे से बालक की छोटी सी भावना और धीमी सी आवाज़. नक्कारखाने में तूती की आवाज़?
ज़िप वाले बूट 
खैर, पढ़ाई ख़त्म हुई तो बैंक में नौकरी लग गई और वहीँ पार्टनर भी मिल गई. समय गुज़रा दो बेटे हो गए. बड़ा छे साल का रहा होगा तो एक दिन उसकी डिमांड आई कि बूट लेने हैं. और बूट भी ऐसे जो टखने से ऊपर हों और साइड में ज़िप लगी हो. मम्मी ने कहा इतवार की छुट्टी है बाज़ार चलेंगे ले लेना. 
इतवार शाम को बड़े नवाब, मम्मी और दादी बाज़ार चल पड़े. 
- तू पैदल चल लेगा या रिक्शा करें?
 - पैदल पैदल!, बड़े नवाब बड़ा हल्का फुल्का महसूस कर रहे थे. और जूते मिलेंगे इसलिए पैदल चलना कोई मुश्किल काम नहीं था.   
बाज़ार में पहुँच कर सात आठ दुकानें देख लीं पर ज़िप वाला जूता नहीं मिला. दादी थकने लग गई और बोली, 
- कोई दूसरा ले ले! जरूरी है ज़िप वाला? 
- नहीं मैंने वोई लेना है.
- मैं तो थक गई तेरे जूते देख देख कर.
- दादी आप बड़ी जल्दी थक जाते हो.
- बेटे ऐसा करते हैं घर चलते हैं काफी देर हो गई है. कल बड़े बाज़ार में चलेंगे, मम्मी ने कहा.
- ह्हूँ अच्छा ठीक है. पर कल दादी नहीं आएगी हमारे साथ.
अगले दिन फिर ज़िप वाले जूते की खोज शुरू हुई. एक घंटे बाद एक जोड़ी नज़र आई और लपक ली. कोई और चॉइस ही नहीं थी. बड़े शौक से दो तीन हफ्ते तक बड़े नवाब ने बूटों की मालिश पोलिश की. शौक और टशन से पहने. वैसे ज़िप वाले जूते पहनने में इतना आराम देह नहीं थे. ना जल्दी से पहने जा सकते थे और ना ही उतारे जा सकते थे. कुछ ही दिनों में लगाव घट गया और तीसरे महीने तो ज़िप वाले बूट नज़र आने बंद हो गए. 

एक दिन छोटे नवाब जिनकी उमर सात साल के आसपास रही होगी बोले,
- मैंने बूट लेने हैं!
- हाँ. अच्छा ठीक है कौन से लेने हैं?
- मैं दूकान में देख कर बता दूंगा. बस आप साथ चल पड़ना.
- ओके.
इतवार के दिन हम चारों बड़े बाज़ार पहुंचे. कई दुकानें देखीं. कई सेल्समेनों ने पूछा,
- कैसे बूट चाहिए?  
- मैं देख रहा हूँ अभी बताता हूँ. 
पर मनपसंद जूता नहीं मिला. गाड़ी लेकर कनाट प्लेस पहुँच गए. बड़े बड़े तीन चार शो रूम देख लिए.
- और डिजाईन दिखाओ.
- आपको कैसा शू चाहिए?
- मैं देख लूँ फिर बताता हूँ.
शोरूम बंद होने लग गए पर मनपसन्द बूट नहीं मिले. चारों थकने लग गए और भूख भी लगने लगी. 
- चलो यहीं कहीं डिनर कर लेते हैं. अगले सन्डे फिर देखते हैं.
- हूँ! उदास आवाज़ में छोटे नवाब बोले.
पर उसके बाद से आजतक छोटे नवाब ने ना तो बूट का डिज़ाइन बताया और ना ही दोबारा बूट लेने की कभी बात की.

अब तीसरी पीढ़ी आने वाली है. देखते हैं की बेटे के बेटे को कौन सा बूट पसंद आता है!

  

13 comments:

Harsh Wardhan Jog said...

http://jogharshwardhan.blogspot.com/2020/05/blog-post_20.html

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत सुन्दर आत्म कथ्य

A.K.SAXENA said...

बहुत ही मजेदार प्रसंग। बाल जीवन की भावनायों का सटीक वर्डण। धन्यवाद।

डॉ. दिलबागसिंह विर्क said...

आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 21.5.2020 को चर्चा मंच पर चर्चा - 3708 में दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।

धन्यवाद

दिलबागसिंह विर्क

Anuradha chauhan said...

बेहतरीन प्रस्तुति

Harsh Wardhan Jog said...

धन्यवाद अनुराधा चौहान. आपका दिन शुभ हो.

Harsh Wardhan Jog said...

धन्यवाद सक्सेना जी.

Harsh Wardhan Jog said...

धन्यवाद डॉ रूप चन्द्र शास्त्री 'मयंक'

Harsh Wardhan Jog said...

धन्यवाद दिलबाग सिंह विर्क. चर्चा-3708 में मुलाकात होगी.

अनीता सैनी said...

बालपन को बहुत ही बारीकी से करीने सा गूँथा है मासूम की अंतरवेदना... मासूम सवालों में उलझा बालक... हृदय स्पर्शी सृजन आदरणीय सर.
सादर

Harsh Wardhan Jog said...

धन्यवाद अनीता सैनी. जो गुज़री खुद पर वही लिखने की कोशिश की.

A.K.SAXENA said...

हा हा हा बूट का मजेदार प्रसंग। बचपन की यादें आज भी दिल को गुदगुदाती हैं। धन्यवाद्।

Harsh Wardhan Jog said...

Thank you Saxena ji.