गुप्तकाशी |
आसमान काला हो गया, चिड़ियाँ शांत हो गईं और अँधेरा छा गया. काले बादलों की गड़गड़ाहट के साथ ही तड़ तड़ करती बारिश आ गई. टीन की छत पर बारिश का ताबड़तोड़ डांस होने लगा. खिड़की के बाहर बारिश की चादर तन गई थी और कुछ नहीं दिख रहा था. छत का पानी कमरे के आगे जहाँ गिर रहा था वहां पथरीली रोड़ी बिछी हुई थी वहां से भी छप छप आवाज़ आने लगी. दिल्ली में ऐसी बारिश कम ही देखने में आई. कुछ समय बाद बारिश धीमी हुई, शोर कम हुआ और टिपक टिपक होने लगी.
उस दिन और अगले दिन बारिश थमी ही नहीं सिलसिला जारी रहा. दो दिन सूरज भी दिखाई नहीं पड़ा. दोनों दिन हम दोनों रेस्तरां में ही बैठे रहे. वहां बैठे बैठे बाहर का पैनोरमिक नज़ारा देखते रहे. अच्छा लग रहा था. चौदह कमरों के रिसोर्ट में हम दो यात्री, एक शेफ और एक अदद मैनेजर बस. कभी चाय, कभी कॉफ़ी, पकौड़े और कभी बियर साथ में गप्पें. बस यही चलता रहा. दोनों दिन बादलों को, बारिश को और हरियाली को ही देखते रहे. कभी बारिश की फुहार पड़ी और कभी बारिश धुआंधार पड़ी. कभी काले बादल दिखे और कभी भूरे, कभी तैरते हुए और कभी रुके हुए. ये भी अलग सा ही मौज भरा अनुभव रहा.
अपनी ड्यूटी पर |
रिसोर्ट के पीछे कोई गाँव था और उसका छोटा सा रास्ता रिसोर्ट की दीवार के साथ साथ गुज़रता था. ज्यादा हलचल नहीं थी इस रास्ते पर. बस बच्चे स्कूल जाते या वापिस आते दिख जाते थे. या बीच बीच में घास ले जाती महिलाएं नज़र आ जाती थीं. बच्चों से बात करने की कोशिश कई बार की पर शर्मा कर कट जाते थे. दूर दूर से कैमरा देख कर मुस्करा देते थे या फिर हाथ हिला देते थे पर बातचीत नहीं करते थे.
ऐसा लगा की गाँव के हर घर में गाय या भैंस होगी तभी इतना महिलाएं चारा ले जा रही होंगी. कुछ तो दो बार भी टोकरी भर के ले जा रही थीं. भरी हुई टोकरी का वज़न भी अंदाज़न दस किलो के आसपास तो रहा होगा. फिर भी पीठ पर उठा कर ऊँचाई और ढलान पर बतियाते हुए आराम से चल रही थीं. बात करना इनसे भी आसान नहीं था. इनमें झिझक थी और शायद भाषा का भी अंतर था.
यहाँ बिजली का लगातार होना बड़े सुकून की बात है. पानी भी नगर निगम सप्लाई करता है. गलियाँ और सीढ़ियाँ पक्की कर दी गई हैं. चूँकि पानी पहाड़ी इलाका होने से यहाँ रुकता नहीं है तो कीचड़ नहीं होता और सफाई रहती है. घरेलू शौचालय 100% तो नहीं हैं पर जल्दी ही हो जाएँगे. रसोई गैस मिल जाती है हालांकि चूल्हे में और सर्दी भगाने में लकड़ी का उपयोग आम है. मोबाइल के सिगनल मुख्य रूटों पर तो खूब हैं. उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड अलग होने में यहाँ के लोगों को फायदा ही रहा है.
गौशाला या बाड़ा या छन्न. प्राय: गाँव के हर परिवार के पास गाय, भैंस या बकरियां हैं जिनका छन्न घर से थोड़ा दूर बनाते हैं |
बारिश लगातार होती रही और दिन में शेफ से भी बतियाते रहे और उसने स्थानीय कुज़ीन के बारे में बताया. चावल यहाँ ज्यादा खाया जाता है. सब्जियों के अलावा बकरा, मुर्गा और मछली भी खूब प्रचलित हैं. यहाँ ब्राह्मण और राजपूत ज्यादा हैं पर मीट मच्छी से परहेज़ नहीं है. हमारी रिक्वेस्ट पर उसने सुबह के नाश्ते में स्पेशल परांठे खिलाए. ये बाजरे से मिलते जुलते 'मंडुए' के आटे के बनते हैं. मंडुए को कोदू या रागी भी कहते हैं. परांठा बनाने के लिए एक हिस्सा गेहूँ का आटा और तीन हिस्से मंडुए का आटा मिलाया गया. फिर उबले मसालेदार आलू डाल कर भरवाँ बनाया गया. ये परांठा पकने में थोड़ा ज्यादा टाइम लेता है. आलू की सब्ज़ी, अचार, मक्खन और चाय के साथ परोसा गया. स्वादिष्ट और ज़ायकेदार लगा.
मंडुए का भरवां परांठा |
बारिश हो या ना हो खाना पीना कैसे रुक सकता है. और अगर गाय भैंस पाली हो तो उनका उपवास तो हो ही नहीं सकता. इस इलाके में गाय भैंस को बाहर भी नहीं भेजा जा सकता खो जाने या किसी खड्ड में गिरने का भी खतरा रहता है. इसलिए उनके चारे का इंतज़ाम भी खुद ही करना पड़ता है. गाँव की महिलाएं इसलिए थोड़ी बहुत फुहार की तो परवाह ही नहीं कर रही थीं. भीगते भीगते भी काम चल रहा था. खेत की गुड़ाई निराई के बाद वापसी में चारा या लकड़ियाँ भी लेकर जा रही थीं. घास के अलावा कुछ स्थानीय पेड़ों के पत्ते भी यहाँ चारे का काम करते हैं इन पेड़ों के नाम हैं - तिम्ला,बुरांश, बाँझ, भ्युंल आदि. वीडियो में देखिये काम आसान नहीं है.
दस्वीदानिया गुप्तकाशी - फिर मिलेंगे |
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