घुमक्कड़ी का अपना ही आनंद है! नए लोगों से मिलना, नए नज़ारे देखना, नया खानपान चखना और जीने के नए अंदाज़ देखना – ये सब अनूठे अनुभव देते हैं। इन्हीं अनुभवों से पता चलता है कि इस दुनिया में कितनी विविधता और सुंदरता बिखरी पड़ी है। अजंता एलोरा की गुफाएं, मदुरै के मंदिर, आसाम के चाय बागान, केदारनाथ का मंदिर वगैरह किताबों में पढ़ने के बजाए खुद जाकर देखने में ज्यादा आनंद आता है। अगर खुद ना देखा हो तो इनकी खूबसूरती पता ही नहीं चलती।
घूमना आसान है? या मुश्किल है? सतही तौर पर तो लगता है, गाड़ी स्टार्ट की और चल पड़े! पर असल में थोड़ा मुश्किल भी है, क्योंकि पेट्रोल, होटल और खाने का खर्चा तो चाहिए ही और छुट्टी भी चाहिए। घूमने का कोई एक आसान फॉर्मूला नहीं है। ज़रूरत है तो बस थोड़े से शौक, थोड़े से जोश, थोड़ी सी निडरता और थोड़े से रोकड़े की! और हाँ खाने से कम लगाव हो तो अच्छा है क्यूंकि पसंद का खाना मिले या ना मिले। और अगर हमसफ़र है, तो वह भी वैसा ही होना चाहिए, वरना मज़ा किरकिरा हो सकता है।
हमारा घूमना ज्यादातर अपनी फटफटिया और कार से ही होता रहा है, चाहे केदारनाथ जाना हो या कन्याकुमारी। अपनी गाड़ी में यात्रा करने का मज़ा ही कुछ और है। पहले मोटरसाइकिल से सफ़र करते थे, अब कार से। अक्सर लोग पूछते हैं: "कार से इतनी दूर कैसे जाते हो? होटल ठीक मिल जाता है? खाना कैसा रहता है? थकान नहीं होती? नींद आ जाती है? गाड़ी पंचर हो जाए या खराबी आ जाए तो? पहाड़ों पर चलाने में दिक्कत नहीं होती?" हमारा जवाब हमेशा एक ही होता है: अरे यार, पहले घर से निकलो तो सही, फिर सवाल पूछना!
मेरा जन्म 1951 में महाराष्ट्र के देवलाली केंट में हुआ। पिताजी की नौकरी के कारण हर तीसरे चौथे साल ट्रांसफर होते रहे और हम भी नए-नए शहरों में पहुँचते रहे – देवलाली से अहमदनगर, नाशिक, मुंबई, जबलपुर, लखनऊ, कानपुर और मेरठ। मेरी नौकरी दिल्ली में लगी, जिसकी वजह से आगरा, सिलचर, तेजपुर, रुड़की और मुज़फ्फरनगर जैसे शहरों में पोस्टिंग रही। इस तरह घूमना रुक रुक कर पर फिर भी लगातार चलता रहा। कह सकते हैं, यात्रा करना तो मेरी जन्म घुट्टी में शामिल है! 😍
2011 में पेंशन मिलनी शुरू हुई, तो सैर-सपाटे में और तेजी आ गई। समय भी खूब था, किसी से छुट्टी मांगने की ज़रूरत नहीं थी, और जेब में पैसे भी थे। तो फिर क्या था – चलो चले! कभी गुजरात की 15 दिन की सैर, तो कभी राजस्थान की 17 दिन की यात्रा। इन सभी यात्राओं में गाड़ी मैं चलाता हूँ और गायत्री जीपीएस संभालती हैं। वह बताती रहती हैं: "अब फलाना किला आने वाला है, वह मंदिर आ रहा है" इत्यादि। हम मूल रूप से यात्री ज़्यादा हैं, पर्यटक कम। यानी कोई टारगेट फिक्स करके नहीं चलते। अगर कोई जगह पसंद आ जाए, तो दो-एक दिन ज़्यादा रुक जाते हैं। कोई तयशुदा प्रोग्राम या रूट नहीं होता; हमेशा बदलाव की गुंजाइश रखकर चलते हैं। जैसे, बैंगलोर जाना हो तो अनुमानित 25 से 35 दिन का समय लेते हैं और रूट भी बदलते रहते हैं ताकि नई-नई जगहें देख सकें।
लगभग 1995 तक सैर-सपाटे के लिए मोटरसाइकिल, बसें, ट्रेन या कभी-कभार सरकारी खर्चे पर हवाई जहाज़ का इस्तेमाल होता था। पहली मोटरसाइकिल थी राजदूत, लेकिन उसकी कोई तस्वीर अब नहीं है (शायद खींची भी नहीं गई थी)। उस राजदूत पर दिल्ली-मेरठ के आसपास ही छोटी-मोटी यात्राएँ हुईं। फिर आई 'बुलेट 350cc'। उस पर हरिद्वार, ऋषिकेश, लैंसडाउन, जयपुर और पुष्कर जैसी लंबी यात्राएँ कीं। जब असम ट्रांसफर हुआ, तो बुलेट को ट्रेन में डालकर वहाँ ले गया। सिलचर और बाद में तेजपुर की पोस्टिंग में भी वह खूब दौड़ाई।
फिर मारुति 800 आ गई, जिससे यात्रा का दायरा और आराम दोनों बढ़ गया। "हम दो और हमारे दो" (बच्चे) के लिए भी पर्याप्त जगह थी। दिल्ली से चंडीगढ़, मसूरी, आगरा, पौड़ी गढ़वाल, गुप्तकाशी जैसे सफ़र आरामदेह हो गए और समय भी कम लगने लगा। हालाँकि, पहली पहाड़ी यात्रा में एक दिक्कत हुई - ऊंचाई पर जाते हुए मोड़ काटने का अभ्यास नहीं था। एक बार हैंडब्रेक हटाए बिना गाड़ी चला दी। गाड़ी की स्पीड नहीं बढ़ रही थी और ब्रेक पैड से धुआँ निकलने लगा। करीब पाँच-छह किलोमीटर बाद समझ आया कि ब्रेक लगी हुई है!
मारुति 800cc के बाद एस्टीम 1000 cc ली। अब एयर कंडीशनिंग का मज़ा था, डिक्की बड़ी थी और स्पीड भी अच्छी थी, जिससे सफ़र और भी आरामदेह हो गया। इसी बीच चीफ मैनेजर बनने पर बैंक ने भी गाड़ी दे दी, तो एस्टीम अब बच्चों के काम आने लगी।
जून 2011 में मेरी रिटायरमेंट थी। गायत्री ने सोचा कि वह भी पेंशन ले लें, ताकि दोनों साथ में भारत दर्शन कर सकें। दोनों बेटे भी नौकरी करने लगे थे, इसलिए हम दोनों ने एक साथ ही रिटायरमेंट ले ली। हालाँकि, भारत दर्शन की तैयारी में हमने रिटायर होने से चार महीने पहले ही एक नई गाड़ी – रॉयल एनफील्ड क्लासिक 500 – खरीद ली थी। पुष्कर और लैंसडाउन की यात्राओं के बाद एहसास हुआ कि मोटरसाइकिल पर लंबा सफ़र, विशेषकर हमारी उम्र में, कमर तोड़ देता है, कंधे दुखने लगते हैं, धूल-मिट्टी कपड़े खराब कर देती है और सबसे बड़ी कोफ़्त तो लाल बत्ती पर इंतज़ार करते हुए होती है!
इसके बाद फोर्ड की ईकोस्पोर्ट डीज़ल ले ली। यह 1500cc की दमदार गाड़ी थी जो बिल्कुल नहीं थकती थी। पहाड़ी चढ़ाइयाँ भी आसानी से पार कर जाती थी। मेरठ-आगरा-लखनऊ जैसा सफर साढ़े सात घंटे में (एक घंटे के लंच ब्रेक के साथ) आराम से हो जाता था। अफ़सोस, दिल्ली सरकार के दस साल वाले नियम के चलते इस ईकोस्पोर्ट को बेचना पड़ा। इस नियम से न तो दिल्ली का प्रदूषण घटा और न ही हमें गाड़ी बेचने का कोई फायदा हुआ।
अब हमारी चौथी गाड़ी है टाटा पंच। इस पर हम मेरठ-बैंगलोर-मेरठ की यात्रा कर चुके हैं। यह थोड़ी नरम है (1200cc, तीन सिलेंडर), इसलिए इसे 100 किमी/घंटा से कम स्पीड पर ही चलाना ठीक लगता है। सर्विस के मामले में भी टाटा, मारुति और फोर्ड की तुलना में थोड़ा पीछे है।
सार यही कि यात्रा के लिए कोई बहुत धाँसू वाहन होना ज़रूरी नहीं है। पैदल, साइकिल, स्कूटर, कार, ट्रेन या हवाई जहाज़ – कोई भी साधन इस्तेमाल किया जा सकता है। मेरा सबसे लंबा साइकिल सफ़र 1974 में दिल्ली से मेरठ तक हुआ था – सुबह पाँच बजे निकलकर दोपहर एक बजे पहुँचा। यह 70 किलोमीटर की वह पहली और आखिरी साइकिल यात्रा थी; दोबारा कभी इतनी लंबी साइकिल यात्रा की हिम्मत नहीं जुटा पाया। इन छोटी - बड़ी यात्राओं की फोटो ब्लॉग में भी प्रकाशित कर दी थी। यहाँ नई पुरानी फोटो का मिक्स एक बार फिर प्रस्तुत हैं। भविष्य में लम्बी यात्राऐं कैसे होंगी यह तो समय ही बताएगा पर गाड़ी तो चलती रहनी चाहिए।
बारिशें थमे तो फिर से निकलते हैं ! 😎