Pages

Monday, 26 October 2015

Happy Cracker Free Diwali!

Festivities have started with change in weather.
Best wishes to all.

This weather brings fog also. 
Burning of garbage, wood, cow dung, & vehicular emission increases the pollution level. 
Crackers shall add sulphuric smoke to already polluted atmosphere.
Pollution can damage eyes, ear, nose, throat & respiratory system.

Therefore let's have a cracker free Diwali.
Please!






Thursday, 22 October 2015

Happy Dussehra!

Victory of good over evil - a short story:

Evil peaks, gives a crooked smile
Evil ignores impending danger  
Evil gets hit by Good 
Evil gets demolished!



Wednesday, 21 October 2015

In Pink City, Jaipur

Pink City Jaipur was established by Maharaja Jai Singh II in 1727. Most of the construction of walled city is in pink or reddish sand stone & hence the name. Another anecdote about the city is that the city was painted pink all over during visit of Prince of Wales in 1878.

The city was designed by Vidyadhar Bhattacharya based on ancient Vastu Shastra. It has an fortified enclosure having seven large strong gates. It is spread over huge nine rectangular blocks two of which were retained for palace, gardens & administrative buildings and rest seven blocks were allocated to the general public.

In 1799 five story high Hawa Mahal was added to the Palace complex to enable royal ladies to watch processions & street scenes without being seen as they had to maintain purdah. The Palace & Hawa Mahal were meant for royals & the elite. All commoners now & no royals. Some photos of commoners in walled city:

View of Pink City from Hawa Mahal. In the year 1900 population was 1.6 lacs & now it is 66 lacs 
Royal couple in Royal City

Flower sellers of Pink city in the morning 

Open air saloon near Hawa Mahal- Rs. 20 for hair cut & Rs. 10 for shave 

Near Jantar Mantar the Observatory. In the end it is the birds who occupy palaces 

Near Hawa Mahal 

Waiting for the customers 

A group of foreign tourists enjoying rickshaw ride near City Palace



Thursday, 15 October 2015

नास्तिक वाद की झलक

भगवान से यदि न्याय मिलता तो न्यायालय नहीं होते।
सरस्वती से यदि विद्या मिलती तो विद्यालय नहीं होते।

उपर वाली लाइनें अर्जक संघ के दफ्तर के बाहर लिखी हुई हैं. अर्जक संघ का दफ्तर सिकंदरा, कानपूर देहात में और इसके अलावा कई अन्य स्थानों पर भी है. इस संघ की स्थापना श्री रामस्वरूप वर्मा (1923-1998) ने 01जून 1968 को की थी. श्री वर्मा MA,LLB थे और आचार्य नरेन्द्र देव, डा. राम मनोहर लोहिया के सहयोगी रहे थे. चौधरी चरण सिंह के मंत्री मंडल में 1967 में वित्त मंत्री भी रहे. अर्जक संघ मूर्ति पूजा, छुआछुत, पुनर्जन्म, आत्मा को बिलकुल नहीं मानते हैं. और अगर मानते हैं तो केवल भारतीय संविधान को.

भारत की 2011 की जनगणना में लगभग 28 लाख से ज्यादा लोगों ने अपना धर्म 'कोई धर्म नहीं' लिखवाया.  इनमें से 5.80 लाख लोग उत्तर प्रदेश से हैं.जनगणना फॉर्म में छे धर्म छपे हुए हैं -1. हिन्दू, 2. मुस्लिम, 3. क्रिस्चियन, 4. सिख, 5. बुद्धिस्ट और 6. जैन. साथ ही में किसी और धर्म के लिए फॉर्म में लिखा है 'for other religions write in full'. इसी स्थान पर शायद लोगों ने लिखवाया होगा 'कोई धर्म नहीं'. इस बारे में एक लेख इंडियन एक्सप्रेस में 05-09-2015 को प्रकाशित हुआ था. अर्जक संघ की और जानकारी विकिपेडिया से भी ली जा सकती है.

अनीश्वरवाद या नास्तिक दर्शन भारत में नया नहीं है बल्कि वैदिक काल से चला आ रहा है. उस काल में भी कई दार्शनिक हुए जो मात्र प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानते थे और आत्मा या परलोक को नहीं मानते थे. इनमें प्रमुख थे चार्वाक और उनके गुरु ब्रहस्पति. चार्वाक और ब्रहस्पति कब हुए इसकी जानकारी नहीं है. पर इनके बारे में और ग्रंथों में उल्लेख मिलता है. चाणक्य ने भी 'अर्थशास्त्र' में गुरु ब्रहस्पति को आचार्य माना है. चार्वाक का एक कथन बहुत प्रचलित है और जो उनके दर्शन की झलक देता है:
यावज्जीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत, भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥
अर्थात जब तक जियो सुख से जियो, चाहे ऋण लेकर घी पियो, देह तो किसी दिन भस्म हो जाएगी और पुन: आना होगा नहीं. पर यह दर्शन यहीं तक सीमित ना होकर कि 'खाओ पियो और मस्त रहो' आगे भी बहुत कुछ कहता है. इस दर्शन में पृथ्वी, जल, सूर्य और वायु ही सृष्टि के मूल तत्त्व माने गए हैं. आकाश तत्त्व को मूल तत्त्व नहीं माना  गया है क्यूंकि वह प्रत्यक्ष नहीं है. इसी तरह इन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान ही प्रत्यक्ष प्रमाण है और इन इन्द्रियों से आगे अनुमान और सम्भावना हैं प्रमाण नहीं. शरीर ही आत्मा है और देह नष्ट होने के बाद कोई आत्मा वापिस नहीं आती. चार भूतों के मिलन से बना शरीर चार भूतों में ही विलीन हो जाता है. इसके अलावा कुछ भी तो बचता नहीं है. परलोक और वर्णाश्रम फिजूल हैं और इनसे कोई फल मिलने वाला नहीं है.
ना स्वर्गो ना पवार्गो वा नैवात्मा पालोकिक: नैव वर्नाश्रमादिनाम क्रियाश्च्फल्देयिका

इस दर्शन को लोकायत या चारू+वाक्य(सुंदर वाक्य) भी कहते हैं. वेद से असम्मत दर्शन वेदवाह्य भी कहलाते हैं और ये हैं: चार्वाक, माध्यमिक, योगाचार, सौतांत्रिक, वैभाषिक और आर्हत. जाहिर तौर पर यह दर्शन काफी प्रचलित नहीं है.
इन्टरनेट पर खोज करने पर कि दुनिया में नास्तिकों की संख्या कितनी है कोई प्रमाणिक आंकड़े नहीं मिले. साथ ही इस तरह की संख्या में विषमता या confusion भी नज़र आया जो की अंग्रेजी में इस्तेमाल किये हुए शाब्दिक अर्थ की वजह से भी हो सकता है. जैसे कि (इन्टरनेट में 'शब्दकोष' से लिए गए शब्दार्थ):
Atheist - नास्तिक (विश्व की जनसँख्या का 2% से 11%).
Agnostic - संशयवादी, अनीश्वरवादी, अज्ञेयवाद का अनुयायी.
Non-believer - अविश्वास करने वाला, नास्तिक, संदेहवादी.
Non-religious - गैर धार्मिक (विश्व की जनसँख्या का 10% से 22 %, आंकड़े विकिपीडिया से).
जो भी हो चार्वाक दर्शन से लगता है कि भारत में प्राचीन काल में भी मतों की विभिन्नता थी पर फिर भी आपसी सिर फुट्टवल ना होकर शास्त्रार्थ ज्यादा रहा होगा.

जो प्रत्यक्ष है वही प्रमाण है 


Tuesday, 13 October 2015

फिरंगी खोज

कहा जाता है की 1492 में अक्टूबर के दूसरे सोमवार को कोलंबस अमरीकी महाद्वीप पहुंचा और इसीलिए उत्तरी और दक्षिणी अमरीकी देशों में ये दिन कोलम्बस दिवस के रूप में मनाया जाता है. वैसे निकला तो था वो ईस्ट इंडीज याने भारत की तरफ पर जा पहुंचा उलटी दिशा में वेस्ट इंडीज.

बहुत सी जगहों पर इस कोलम्बस दिवस का विरोध भी होता है क्यूंकि इस 'खोज' की वजह से मूल निवासियों की भाषा, उनका धर्म और संस्कृति का सफाया हो गया. तलवार के जोर पर धर्म परिवर्तन हुआ और गुलामों की तरह उनकी खरीद फरोख्त होने लग गई. अगर वह भारत पहुँचता तो भी शायद यही होना था?
  
भारत की खोज फिरंगियों द्वारा फिर भी जारी रही. यूरोप से धरती पर से पैदल या घुड़सवारी कर के पहुंचना बहुत समय लेता और साथ ही जोखिम भरा भी था. समुद्री रास्ता खोजा वास्को द गामा ने 1498 में. वह अपने लाव लश्कर के साथ 20 मई 1498 को कालीकट में कप्पड़ या कप्पाकद्वु नामक स्थान पर उतरा. हालांकि अरब सौदागर तो सन 1000 के आस पास आना शुरू हो गए थे. अरब व्यापारियों के अलावा चीनी, यहूदी और रोमन लोग भी मसालों के व्यापार के लिए आते थे पर संख्या में कम थे और व्यापार तक ही सीमित थे. फिरंगियों की नीयत कुछ और ही थी.

वास्को द गामा एक योद्धा, नोसैनिक और इसाई धर्म रक्षक भी था. उसने तीन बार केरल तट की यात्रा की. हर बार मूर और अरब व्यापारियों के जहाज़ों पर हमले किये और लूट पाट की. कालीकट के राजा समुदिरी से भी लड़ाई की और बेहतर बंदूकों और तोपों के वजह से जीत हासिल की. कुछ ही सालों में व्यापार अरबी भाषा के बदले टूटी फूटी पुर्तगाली भाषा में शुरू हो गया. यहीं से पुर्तगालियों ने एक ओर गोवा की तरफ और दूसरी ओर मलेशिया / इंडोनेशिया की तरफ जहाज बढ़ाने शुरू कर दिए.

इन दोनों घटनाओं का विश्व पर क्या प्रभाव या दुष्प्रभाव पड़ा इसका अंदाजा इस बात से लग सकता कि आज दुनिया में कोलंबस की स्पेनिश भाषा बोलने वाले लोग 41 करोड़ से अधिक हैं. साथ ही वास्को द गामा की भाषा पुर्तगाली 20 करोड़ से ज्यादा लोग बोलते हैं. और अगर अंग्रेजी की बात करें तो अंग्रेजी भाषा 33 करोड़ से ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाती है. विश्व में स्पेनिश भाषा का दूसरा स्थान है, अंग्रेजी का तीसरा और पुर्तगाली का छठा (आंकड़े Ethologue 2014 से) है. और अगर जनसँख्या देखें तो ग्रेट ब्रिटेन 6.1 करोड़ + है, स्पेन की 4.4 करोड़ + है, और पुर्तगाल की 1करोड़ + है.

वास्को द गामा के आने के बाद तो यूरोप में कई व्यापारी कम्पनियों बन गई जो बाद में बहुत से देशों की गुलामी का कारण भी बनीं :
- ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी बनी 1600 में,
- डच ईस्ट इंडिया कंपनी बनी 1602 में,
- फ्रेंच ईस्ट इंडिया कंपनी बनी 1664 में और
- स्वीडिश ईस्ट इंडिया कंपनी बनी 1731 में.

और अभी तक फिरंगी खोजें जारी हैं और माफ़ कीजिये कुछ हद तक हमारी मानसिक गुलामी भी. मसलन फिरंगी हमें बताते हैं की योग करने से आप स्वस्थ रहेंगे, गौतम बुद्ध की मैडिटेशन विधि वाकई असरदार है, नीम, पीपल, तुलसी में गुण हैं, कपास का बीज कौन सा लगाना है, बैंक कैसे चलाने हैं, कौन सी फेस क्रीम लगानी चाहिये, प्रजातंत्र कैसे चलाना है वगैरा. और हमें लगता है की गोरे फिरंगी ठीक ही कह रहे होंगे!

वास्को द गामा का स्मारक - कप्पड़, कालीकट जहां वह 20 मई 1498 को उतरा था 



Thursday, 8 October 2015

अपना श्राद्ध

श्राद्ध आते ही कई तरह के विधि विधान लागू हो जाते हैं. फलां दिन पूजा है, फलां दिन ब्राह्मण भोज करवाना है, नॉन-वेज नहीं खाना है, दारु नहीं पीनी है, अंडा भी बंद है, बाल नहीं कटवाना है वगैरा. पूरा कर्फ़्यू लग जाता है साहब. परन्तु घरेलू खाने पीने में काफी पकवान भी शामिल हो जाते हैं. रसोई से तरह तरह की सुगंध आने लगती है जो मन को बहुत भाती है.

बैठे बैठे यूँ ही ख्याल आया की जो भी अनुष्ठान इन दिनों में करते हैं क्या वो पितरों तक पहुँच जाता है? वायरलेस या ब्लूटूथ या किसी जादू के सहारे कैसे जाता होगा ? भौतिक रूप में तो हलुआ पूड़ी जाना मुश्किल है. और पंडित जी भी कितने ही परिवारों में जीमते हैं कहाँ तक पितरों के नाम धाम याद रख पाते होंगे? फिर भोजन में गाय, कुत्ता और कौवे का भी तो शेयर अलग रखना है. पता नहीं ये लोग कैसे आगे खबर पहुंचाते होंगे कि श्रद्धांजलि प्राप्त हो गई है?

इस मौके पर कबीर दास जी की एक कहानी याद आ गई. एक दिन रामानंद जी ने कबीर दास जी को कहा की वे दूध ले आएं ताकि श्राद्ध में पितरों के लिए खीर बनाई जा सके. कबीर दास जी ने बर्तन लिया और निकल पड़े. बहुत देर तक वापिस नहीं आये तो रामानंद जी उन्हें खोजना शुरू किया. देखा तो कबीर दास जी एक मरी हुई गाय के पास बर्तन लेकर बैठे हैं. रामानंद जी ने पुछा ये क्या है? कबीर दास जी ने उत्तर दिया की गाय घास खाएगी उसके बाद ही तो दूध देगी. रामानंद जी ने कहा गाय तो मर चुकी है वो अब घास नहीं खाएगी. कबीर दास जी ने जवाब दिया की आज की मरी हुई गाय घास नहीं खा सकती तो फिर बीसियों साल पहले मरे हुए पितर खीर कैसे खा लेंगे?

इसी तरह की एक कहानी है गुरु नानक देव जी की. वे हरद्वार पहुंचे तो देखा लोग सूरज की तरफ देख कर जल चढ़ रहे हैं. पूछने पर जवाब मिला की वे अपने पितरों को जल अर्पण कर रहे हैं. गुरु नानक देव जी ने पश्चिम की ओर मुंह करके लोटे से जल चढ़ाना शुरू कर दिया. उनसे पुछा गया की ऐसा क्यूँ कर रहे हैं. तो बाबा जी ने जवाब दिया की अपने खेतों को पानी दे रहा हूँ. तुम अपने पितरों को दूसरी दुनिया में जल चढ़ा रहे हो तो मैं इसी धरती पर अपने खेतों में जल नहीं भेज सकता?

कबीर दास जी और गुरु नानक देव जी के विचार और उन विचारों के पीछे के भावार्थ पर गौर करने की जरूरत है.

फिर मन में ये भी विचार आया की हम भी किसी दिन पितर बन जाएंगे. ऊपर बैठ कर देखेंगे की हलवा बन रहा है या खीर? हम स्वर्ग से धरती वाले घर के ड्राइंग रूम को देख पाएँगे? ये सोच कर मामला श्रीमतीजी से डिस्कस किया. जैसे हमें श्राद्ध के नियम क़ानून पालन करने में अटपटे लग रहे हैं ऐसे हमारे जाने के बाद हमारे बच्चों को भी मुश्किल लगेंगे. तो क्यूँ न हम बच्चों को इस बंधन से मुक्त कर दें? हमारे जाने के बाद जैसा ठीक समझें वैसा कर लें हमें कोई एतराज नहीं होगा. हम जहां भी होंगे आशीर्वाद भेजते रहेंगे. हमारे ना होने पर बच्चे नाहक क्यूँ परेशान हों ?

इस सहमती के बाद श्रीमतीजी ने एक चित्र बनाया. अगर हम ऊपर से देखेंगे तो धरती के ड्राइंग रूम में हमारी फोटो पर इस तरह से हार टंगा होगा :

हम स्वर्गवासी हुए 


Grass and twigs

Weather has taken a turn for good & it is a bit cooler now. And the festive season is round the corner. Therefore unwanted grass & low hanging branches of the trees were required to be pruned a bit.
If you have cow or a buffalo at home, grass would come in handy to feed them. Pruned tree branches could be stored over the roof to dry & could be used in winter to keep away the cold. In case there is no gas connection twigs & dried branches might be used for cooking as well.
These ladies in colourful saris & suits did a good job. Though it was tough working in afternoon sun but they did it with a smile. They shall make use of both grass & smaller branches at their homes.












Sunday, 4 October 2015

अग्वादा किले का दीप स्तम्भ, गोवा

अरब सागर के तट पर गोवा में एक किला है अग्वादा या Fort Aguada. ये किला मांडवी नदी के मुहाने पर स्थित है और इसे 1612 में पुर्तगालियों ने बनाया था. इसका उद्देश्य था डच और मराठों से अपनी सुरक्षा करना.

किले के उपर वाले हिस्से में एक दीप स्तम्भ है जिसे 1864 में बनाया गया था. शुरू में यह स्तम्भ हर सात मिनट में रोशनी फेंकता था पर बाद में इस पर हर तीस सेकंड का शटर लगाया गया. अपने समय में ये स्तम्भ एशिया के सबसे बड़े स्तंभों में से एक था. 1976 में इसे बंद कर दिया गया था और अब ये एक पर्यटन स्थल है.

अग्वादा किले का चार मंजिला दीप स्तम्भ 

अग्वादा किले का मॉडल. इसमें एक छोटा सा सफेद दीप स्तम्भ नज़र आ रहा है

अरब सागर पर ढलता सूरज 

रंग बदलती शाम 

Friday, 2 October 2015

मिन्द्रोल्लिंग बौद्ध विहार, देहरादून

देहरादून की भीड़ भाड़ से थोडा सा दूर एक शांत जगह है क्लेमेंट टाउन जहाँ काफी संख्या में तिब्बती शरणार्थी रहते हैं. यहाँ एक गेलुग बौद्ध मठ है और उसके पास ही दूसरा पर बड़ा मठ है मिन्द्रोल्लिंग मठ. इनके तिब्बती शैली के भवन, स्तूप और गोम्पा बड़े ही सुंदर लगते हैं. यहाँ धार्मिक शिक्षा, पूजा के मंदिर और भिक्षुओं के रहने के स्थान हैं.

तिब्बती भाषा में मिन्द्रोल्लिंग - mindrolling- शब्द का अर्थ है place of perfect emancipation याने पूर्ण मुक्ति का स्थान. पहला मिन्द्रोल्लिंग मठ 1676 में तिब्बत में स्थापित किया गया था. देहरादून में छठा मिन्द्रोल्लिंग मठ है जिसकी शुरुआत 1965 में की गई थी. इससे पहले 1959 में चीन तिब्बत में घुसपैठ कर गया था और मठ के लोगों को वहां से भागना पड़ा था. मिन्द्रोल्लिंग मठ बौध दर्शन के वज्रयान या तांत्रिक बौध धर्म का पालन करता है.
प्रस्तुत हैं कुछ फोटो:

मिन्द्रोल्लिंग गोम्पा - सुंदर और शांत 

65 मीटर उंचा विश्व शांति स्तूप. दुनिया के सबसे ऊँचे स्तूपों में से एक  

गौतम बुद्ध का देवलोक से पृथ्वी पर आगमन 

ज्ञान की देवी मंजुश्री ( जिन्हें हम सरस्वती के नाम से जानते हैं ) 

स्तूप और उससे जुड़ी मान्यताएं

103 फीट ऊँची शाक्यमुनि बुद्ध की मूर्ति