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Wednesday 30 October 2019

अलेक्सा आ गई

अलेक्सा का नाम टीवी विज्ञापनों में देखा था पर अलेक्सा की शक्ल सूरत पर या कैसे काम करती है इस पर ध्यान नहीं दिया. विज्ञापनों के अनुसार बड़ी जल्दी बात सुनती है और काम कर के दिखाती है. टीवी के विज्ञापन में दिखाते हैं कि जैसे ही बोला जाए 'अलेक्सा गाना सुनाओ' तो गाना बजने लग जाता है. लता, रफ़ी या मुकेश का नाम लो तो फ़ौरन गाना हाज़िर. जैसे ही अलेक्सा से मौसम का हाल पूछो तो तापमान कितना है, बादल हैं या नहीं सब बता देती है. क्रिकेट मैच का स्कोर पूछो ते फट से बता देती है. कमाल का जादू !

एक दिन बेटे का फोन आया की कुछ सामान भेजा है कल कूरियर लेकर आएगा आप ले लेना कोई पैसे देने की ज़रुरत नहीं है. अगले दिन एक गत्ते का डिब्बा आ गया. परत दर परत पैकिंग खोली तो उसमें से अलेक्सा निकली! गोल गोल काली काली डिबिया की तरह जिसका नाम अलेक्सा डॉट था. एनर्जी के लिए काली लम्बी तार और प्लग. बस ये डिबिया और तार ? बड़ा आश्चर्य हुआ कि ये गाने और ख़बरें कैसे सुनाएगी ? अलेक्सा के ऊपर मात्र चार निशान बने थे एक तो + और दूसरा - तीसरा था और चौथा ⦽ याने पॉवर ऑफ. तो फिर ये गाने कैसे सुनाएगी ?

अलेक्सा अपने साथ नन्हीं सी किताब भी लाई थी जिसे पढ़ कर समझ आया कि इसे इन्टरनेट भी चाहिए. जैसे जैसे इस छोटी सी किताब में आदेश लिखे थे वैसे वैसे पालन करते गए और अलेक्सा तैयार हो गई. कमाल कर दिया अलेक्सा ने पूछने लगी आप मुझे कहाँ बिठाओगे लॉबी में, बेडरूम में या किचन में ? चलो तुम लॉबी में ही बैठो. अब एक नई दिक्कत आ गई. यो अलेक्सा तो अंग्रेजी बोले थी हिंदी ना सुणती ! दुबारा किताब पढ़ी तो समझ आया की हिंदी भी सुण लेगी पर सेटिंग करनी पड़ेगी. सेटिंग करणी तो घणी आसान है चाहे धन्नो हो या छमिया, तो यो अलेक्सा क्या चीज़ है ! पर वो बाद में भी हो जाएगी पहले चलाया तो जाए.

अब टेस्टिंग की बारी थी. उद्घाटन में तो भजन ही होना चाहिए इसलिए श्रीमती बोली, 
- अलेक्सा प्ले अ भजन बाई कबीर. 
जवाब में अलेक्सा ने कबीर सिंह फिल्म में से 'कैसे हुआ ?कैसे हुआ ?' गाना सुनाना शुरू कर दिया. श्रीमती तुरंत बोली
- ये क्या ? स्टॉप अलेक्सा स्टॉप. 

अब बारी थी तलत महबूब की ग़ज़ल की. श्रीमती ने अलेक्सा को बोला कि तलत का गाना ' बेरहम आसमां मेरी मंजिल बता है कहाँ' सुना दे. 
अलेक्सा ने सुनाया 'हो के मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा'. खैर इस गाने में एक अंतरा तो तलत ने भी गाया है चाहे पूरा गाना ना गाया हो. 

एक सुबह किचन से श्रीमती ने आवाज़ लगाई 'अलेक्सा प्ले अ भजन बाई प्रह्लाद टिप्पणिया' . अलेक्सा ने कुछ सोच कर जवाब दिया 
- आई डोंट अंडरस्टैंड प्रहलाद टिप्पणिया !
जवाब पसंद नहीं आया. किचन से निकल कर श्रीमती ने अलेक्सा के पास आकर डांटा - अलेक्सा स्टॉप. इसे तो कुछ पता ही नहीं है. वापिस जाकर देखा तो चाय उबल कर गैस के चूल्हे पर गिर चुकी थी. तब से श्रीमती और अलेक्सा की दोस्ती ख़तम सी हो गई है. अलेक्सा अब ज्यादातर शांत बैठी रहती है.  

अलेक्सा आदेश के इंतज़ार में 



Saturday 26 October 2019

कण्व ऋषि आश्रम कोटद्वार

दिल्ली से कोटद्वार लगभग 220 किमी की दूरी पर है. इसे गढ़वाल का एक प्रवेशद्वार भी कहा जा सकता है और इस द्वार से पौड़ी, लैंसडाउन और श्रीनगर पहुंचा जा सकता है. खोह नदी के किनारे हिमालय की तलहटी में बसा शहर है कोटद्वार. यहाँ का रेलवे स्टेशन 1890 में बनाया गया था जहां आकर रेलवे लाइन खत्म हो जाती है.

यहाँ के मुख्य बस अड्डे से 14 किमी दूर कण्व ऋषि आश्रम है चलिए घूमने चलते हैं. यह आश्रम एक गैर सरकारी संस्था ने बनाया है जिसे जंगल में से  0.364 हेक्टेयर जमीन दी गयी थी. आश्रम मालिनी नदी के बाएँ तट पर घने जंगल के बीच है. बहुत सुंदर हरी भरी जगह है जहाँ कलकल करती मालिनी नदी की आवाज़ सुनाई देती रहती है.

मान्यता है की हस्तिनापुर के राजा दुष्यंत शिकार करते हुए भटक गए और कण्वाश्रम जा पहुंचे. कण्व ऋषि तीर्थ यात्रा पर थे. शकुन्तला ने जिसे ऋषि ने बेटी की तरह पाला था, दुष्यंत की आवभगत की. उनका गन्धर्व विवाह हुआ. दुष्यंत ने वापिस जाते हुए शकुन्तला को अंगूठी पहनाई और कहा की हस्तिनापुर आकर मिले. पर अंगूठी एक दिन नदी में गिर गई और उसे मछली निगल गई. जब शकुन्तला राजा से मिली तो उसने पहचाना ही नहीं. उधर मछली वाले ने अंगूठी बेचने की कोशिश की तो पुलिस ने पकड़ कर राजा के सामने पेश किया. राजा ने अंगूठी देखी तो सब याद आ गया. शकुन्तला की खोज की गई और राजा दुष्यंत ने उसे अपनी रानी बना लिया. बालक भरत पैदा हुआ जो बाद में चक्रवर्ती राजा बना और उसी के नाम पर भारतवर्ष बना. 

कालीदास ने इस पर सात अंकों का नाटक लिखा जिसकी वजह से किस्सा और लोकप्रिय हो गया. कालिदास का जन्म कहाँ हुआ था ये तो तय नहीं है पर वे चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबार में रहे अर्थात चौथी शताब्दी के आसपास ही जन्मे थे. पुरातत्व विभाग याने ASI की तरफ से यहाँ कोई बोर्ड या नोटिस नहीं लगा है की कण्व ऋषि, शकुन्तला या भरत का जन्म यहीं हुआ था या वे यहीं रहा करते थे. 

बहरहाल सुंदर स्थान है पर कोई पब्लिक टॉयलेट या रेस्टोरेंट की सुविधा नहीं है. सैलानी कम आते हैं. पास में नदी के दूसरी तरफ एक सरकारी और एक प्राइवेट होटल हैं जहां रुका जा सकता है. कुछ फोटो प्रस्तुत हैं:

घने पहाड़ी जंगल के बीच बना हुआ है कण्व आश्रम. बहुत सुंदर जगह है   

कण्व आश्रम के बीच बड़ा चबूतरा है जिस पर इन पांच की मूर्तियाँ बनी हुई हैं - कण्व ऋषि, कश्यप ऋषि, राजा दुष्यंत, शकुन्तला और बालक भरत 

ये परिसर सरकारी ना होकर एक NGO कण्वाश्रम विकास समिति द्वारा बनाया हुआ है. बोर्ड पे लिखे नोटिस के अनुसार 0.364 हेक्टेयर जमीन इस काम के लिए उन्हें दी गई थी. समिति की वेबसाइट का पता है - www.kanvashramsamiti.org 

कण्व ऋषि. बताया जाता है कि यहाँ ऋषि द्वारा  बहुत बड़ा गुरुकुल चलाया जाता था

कश्यप ऋषि भी यहाँ गुरुकुल में शिक्षा देते थे

राजा दुष्यंत और रानी शकुन्तला

बालक भरत शेर के दांत गिनते हुए 

मालिनी नदी पर बना पुल 

नोटिस बोर्ड 

रामानंद जी पिछले पच्चीस सालों से यहीं आश्रम में रहते हैं और ऋषि - मुनियों, दुष्यन्त - शकुंतला के बारे में काफी जानकारी देते हैं 


Saturday 5 October 2019

लक्खी बंजारा

हस्तिनापुर में  लक्खी बंजारा की मूर्ति बनाई जा रही है 

हस्तिनापुर की यात्रा के दौरान पत्थर की मूर्तियाँ बनती देखी थी. एक मूर्ति के बारे में मूर्तिकार से पूछा तो उसने बताया की लक्खी बंजारे की मूर्ति तैयार हो रही है. जब पूछा की ये कौन थे तो उसने बताया की लक्खी बंजारा एक बड़े व्यापारी थे. ये मूर्ति और साथ में कुत्ते की मूर्ति दोनों की सेटिंग कर के मुज़फ्फरनगर भेजनी है. लक्खी बंजारे के बारे में इससे ज्यादा जानकारी उसे नहीं थी. 

बंजारे तो शहर, गाँव-खेड़े और विदेशों में भी घूमते फिरते मिल जाते हैं. कौतुहलवश कुछ लोगों से पूछा और कुछ इन्टरनेट खंगाला तो बंजारों के बारे में काफी जानकारी मिली. इसमें से कुछ संक्षेप में आपसे शेयर कर रहा हूँ. इन्हें खानाबदोश, बाजीगर, नायक, लुहार, घुमंतू , जिप्सी, रोमा, त्सिगानी वगैरा भी कहते हैं. अस्थाई डेरा डालते हैं, छोटी मोटी चीज़ों का व्यापार करते हैं, रंग बिरंगे चटक कपड़े और चांदी के मोटे मोटे गहने पहनते हैं. कुछ दिन एक जगह रहते हैं फिर डेरा कहीं और लगाते हैं. दूर दराज जगहों पर सामान लाने ले जाने में सक्षम हैं. विश्व में इनकी संख्या तीन से चार करोड़ तक बताई जाती है. इनका मूल देश का तो पता नहीं है पर इन्हें सिन्धु घाटी की सभ्यता से भी जोड़ा जाता है. यूरोप के 'रोमा' रोमानी भाषा बोलते हैं जिसमें पंजाबी, गुजराती और राजस्थानी शब्द भी शामिल हैं. माना जाता है की लगभग एक हज़ार वर्ष पहले इन बंजारों में से कुछ लोग  उत्तर पश्चिमी भारत से यूरोप की तरफ कूच कर गए थे. मजेदार बात है कि 1983 के यूरोप के रोमा महोत्सव में श्रीमती इंदिरा गाँधी भी शामिल हुई थीं. जहां तक लक्खी बंजारे का सवाल है इससे मिलते जुलते तीन नाम मिले जिनकी कहानियां कुछ इस तरह से हैं : 

1. भाई लक्खी शाह बंजारा - भाई लक्खी का जन्म 04 जुलाई 1580 के दिन खैरपुर सादात, पाकिस्तान में हुआ था और निधन मालचा गाँव नई दिल्ली में 99 साल 10 महीने की उम्र में हुआ था. कहीं कहीं इनका नाम लक्खी राय भी लिखा मिलता है और वंज़ारा भी कहा जाता है. भाई लक्खी मुग़ल सेना को घोड़ों की जीन, रकाब और लगाम सप्लाई किया करते थे. बड़े ठेकेदार थे. साथ ही सामान लाने ले जाने की व्यवस्था करते थे. दिल्ली से लाहौर, पेशावर, काबुल और कंधार तक बैलगाड़ी और घोड़ागाड़ी में सामान आता जाता था. रास्तों में जगह जगह बैलगाड़ी और घोड़ागाड़ी के चालकों के आराम करने के लिए 'टांडा' बनवा रखे थे. एक समय में इनके पास लाखों नौकर चाकर थे और भाई लक्खी शाह दिल्ली के कई गाँव मसलन मालचा, रायसीना, नरेला के मालिक थे. 

भाई लक्खी का बड़े व्यापारी के तौर पर तो नाम मशहूर है ही उससे भी ज्यादा नाम गुरु तेग बहादुर की सेवा के कारण है. गुरु साहिब को औरंगजेब ने 1675 में गिरफ्तार कर लिया और आदेश किया कि खुले आम गुरु साहिब का सिर धड़ से अलग कर दिया जाए और टुकड़े कर के जगह जगह टांग दिया जाए. चांदनी चौक में जहां आज सीसगंज गुरुद्वारा है वहां उन्हें ले जाया गया. भाई लक्खी अपने बेटों और बहुत से सेवादारों के साथ रुई से भरी बैलगाड़ियाँ लेकर पहुंचे. उस शाम तेज़ धूल भरी आंधी चल रही थी. बैलगाड़ियों से अलग धूल उड़ रही और शोर हो रहा था. तमाशबीन और सिपाही आंधी से बचने के लिए मुंह पर कपड़े लपेटे छुपने की कोशिश कर रहे थे. इसी कोहराम में भाई लक्खी ने अपने बेटे की सहायता से गुरु साहिब का धड़ उठा कर बैलगाड़ी में डाला और सिर भाई जगजीवन( भाई जेता ) को दे दिया. वहां से बैलगाड़ी भगाते हुए अपने घर रायसीना पहुंचे. घर में अंतिम अरदास कर के पूरे घर को आग लगा दी. भाई लक्खी ने इस तरह गुरु साहिब के मृत शरीर की दुर्गति होने से बचा लिया. इस स्थान पर आजकल गुरुद्वारा रकाबगंज साहिब है. 1680 में भाई लक्खी का देहांत हो गया. 

2. लाखा बंजारा मध्य प्रदेश के सागर जिले में एक बड़ी झील है जिसे सागर झील या अब लाखा बंजारा झील कहते हैं. सागर झील कब और कैसे बनी इसकी कोई पुख्ता जानकारी नहीं है. इस झील के इतिहास के तौर पर यहाँ एक किंवदंती या लोक कथा प्रचलित है. कहते हैं कि सूखा पड़ने के कारण राजा ने झील खोदने का आदेश दिया. खुदाई तो हो गई परन्तु पानी नहीं निकला. 

राजा ने कई दरबारियों से  पानी ना आने का कारण पता करने की कोशिश की पर कोई हल नहीं निकला. राजा ने ताल में पानी लाने वाले के लिए पुरस्कार की घोषणा भी कर दी पर कुछ हासिल ना हुआ. फिर किसी ज्ञानी व्यक्ति ने सुझाव दिया की अगर इस खुदे हुए ताल के बीचोबीच अगर कोई नया विवाहित जोड़ा झूला झूले तो पानी आ सकता है. परन्तु पानी आने के बाद जोड़ा बाहर निकल नहीं पाएगा और वहीँ डूब जाएगा. अब मसला और भी संगीन हो गया.

बात लाखा बंजारा तक पहुंची और उसने राजा के दरबार में जाकर घोषणा  कर दी कि वह पानी लाने के लिए अपने नवविवाहित बेटे और बहु को झूले में बैठा देगा. तैयारी हो गई और शुभ समय देख कर सजे धजे दूल्हा दुल्हन को झूले में बिठा दिया गया. उन्होंने झूलना शुरू किया और पींग बढ़ाई. अचानक से पानी का फव्वारा फूट पड़ा. झील में पानी भर गया पर दुर्भाग्य से वे दोनों भी उसी झील में समा गए. कहानी सच है या मिथक ये तो पता नहीं परन्तु बलिदानी लाखा बंजारा एक लोक नायक के रूप में मध्य भारत और बुंदेलखंड में आज भी प्रसिद्द है.
लाखा बंजारा झील, सागर, मध्य प्रदेश 


3. लखी बंजारा पानीपत के पास एक थर्मल बिजली घर है. उसके पास ही एक गाँव है ऊंटला जहां कूकड़ा बाबा का डेरा है. कहा जाता है की पानीपत की तीसरी लड़ाई हारने के बाद मराठा जनरल सदाशिव राव भाऊ ने यहाँ के जंगलों में भटकते रहे. अंत में यहाँ जो बाबा बैठे थे उन के पास डेरा डाल दिया था. कालान्तर में जनता के सहयोग से यहाँ मंदिर बना. आसपास के गाँव में अभी भी फसल का कुछ भाग डेरे में दान दिया जाता है. अगर किसी नजदीकी गाँव में ब्याह शादी हो तो पहली थाली यहाँ डेरे में भेजी जाती है. यहीं एक कुत्ते की समाधि भी है जिसका किस्सा कुछ यूँ बताया जाता है. 

लखी बंजारा एक पशु व्यापारी था. व्यापार में घाटा होने के कारण उसे पानीपत के एक सेठ से उधार लेना पड़ा. कर्ज के बदले में उसने अपना बहुत ही वफादार कुत्ता बड़े बे मन से सेठ के पास गिरवी छोड़ दिया. अचानक उस रात सेठ के घर में चोर घुस आए और चोरी हो गई. पर कुत्ते की मदद से चोर पकड़े गए और सामान बरामद हो गया. 

सेठ ने कुत्ता छोड़ देने का फैसला किया और कुत्ते के गले में लखी बंजारे के नाम एक चिट्ठी बाँध दी जिसमें लिखा था -  लखी बंजारे तेरे कुत्ते ने मेरा बहुत बड़ा नुकसान होने से बचा लिया है. इसलिए तेरा क़र्ज़ मैंने माफ़ कर दिया है और तेरा कुत्ता तुझे वापिस भेज रहा हूँ'. उधर लखी बंजारे ने कुत्ते को डेरे में वापिस आते देखा तो आग बबूला हो गया और उसे मार दिया. बाद में डेरे के बाबा ने कुत्ते के गले में बंधी चिट्ठी पढ़ी. चिट्ठी पढ़ कर बाबा ने कुत्ते को अमर रहने का आशीर्वाद दिया और लखी बंजारे को कुत्ते की समाधि बनाने के लिए कहा जो आज भी है.

लक्खी बंजारा का कुत्ता 

                15 सेकंड का एक विडियो. मूर्तिकार लक्खी बंजारा की कंक्रीट की प्रतिमा बनाते हुए 






Tuesday 1 October 2019

हस्तिनापुर के मूर्तिकार

हस्तिनापुर एक छोटा सा पर ऐतिहासिक शहर है जो मेरठ जिले में है. दिल्ली से हस्तिनापुर की दूरी 135 किमी है. यहाँ के जैन मंदिर बहुत ही सुंदर हैं. हस्तिनापुर की मुख्य सड़क पर अमर शहीद उधम सिंह चौक के आस पास बहुत से मूर्तिकार अपना काम करते नज़र आएँगे. छैनी हथौड़ी की आवाज़ तो सुनाई देगी ही कुछ नए मशीनी औज़ार भी नज़र आएँगे. इन नए औजारों से काम की क्वालिटी बढ़े या ना बढ़े पर काम जल्दी हो जाता है. 

ये काम हस्तिनापुर के कुछ परिवार कई दशकों से करते आ रहे हैं. मूर्तियाँ पत्थर, सफ़ेद मार्बल या फिर कंक्रीट से बनाई जाती हैं. गुलाबी पत्थर जोधपुर से और संगमरमर किशनगढ़ राजस्थान से मंगाया जाता है. इसके अलावा कंक्रीट का भी इस्तेमाल किया जाता है जिसमें अलग अलग तरह के रंग भरने की सुविधा रहती है. 

पत्थर की तीन फुट ऊँची ध्यान में बैठे हुए गौतम बुद्ध की प्रतिमा बनाने में 25 से 45 दिन तक का समय लग सकता है और कीमत 50 हज़ार या उससे ज्यादा हो सकती है. मार्बल से बना सामान और भी महंगा है. कंक्रीट में काम धीरे धीरे और टुकड़ों में चलता है इसलिए समय ज्यादा लगता है. नीले घोड़े पर बैठे गोगा जाहर वीर की प्रतिमाएं कंक्रीट में ही बनाती हैं. 

आप अपनी या किसी दिवंगत की प्रतिमा भी बनवा सकते हैं. ऐसे में पहले मिट्टी / प्लास्टर ऑफ़ पेरिस का मॉडल बना के दिखा दिया जाता है और मॉडल पास होने के बाद ही पत्थर पर काम शुरू होता है. आसपास के गाँव में फौजी बहुत हैं. शहीद फौजियों की मूर्तियाँ अक्सर बनवाई जाती हैं. प्रस्तुत हैं कुछ फोटो:

काम मेहनत का है, धूल मिट्टी में सने रहने का है पर फिर भी फोकस बनाए रखना है. ज़रा सी असावधानी से मेहनत बेकार जा सकती है 

गौतम बुद्ध की तैयार मूर्तियाँ. इन मूर्तियों में जोधपुर के गुलाबी पत्थर का इस्तेमाल किया गया है 

सुंदर कारीगरी का नमूना. यह मूर्ति भी जोधपुरी पत्थर की बनी है. इस में अभी बारीक काम और फिनिशिंग होनी बाकी है 

गौतम बुद्ध की अधूरी मूर्ति. इसमें 45 दिन के उपवास के बाद सिद्धार्थ गौतम के शरीर की स्थिति दिखाई जानी है. मूर्ति में सफ़ेद मार्बल इस्तेमाल किया जा रहा है  

सफ़ेद मूर्ति बाबा गोरखनाथ की है और घोड़े गोगा जाहर वीर बाबा की मूर्ति के लिए तैयार हो रहे हैं. राजस्थान में जन्मे गोगा जाहर वीर, बाबा गोरखनाथ के परम शिष्य थे 

लाल पत्थर से बनी तैयार मूर्तियाँ 

ये कुत्ते की मूर्ति लक्खी बंजारा की मूर्ति तैयार होने पर उसके साथ रखी जाएगी. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के व्यापारियों में लक्खी बंजारा की काफी मान्यता है 

गोगा जाहर वीर की मूर्ति. राजस्थान के चुरू जिले में जन्मे जाहर वीर बाबा को गोगा चौहान, जाहर वीर, जाहर पीर भी कहा जाता है. राजस्थान के सभी सम्प्रदायों के लोक देवता हैं. इनका घोड़ा नीला ही बनाया जाता है 

फौजी सतपाल सिंह की प्रतिमा. यहाँ के मूर्तिकार किसी दिवंगत की भी मूर्ति बना सकते हैं 


15 सेकंड का एक विडियो. मूर्तिकार लक्खी बंजारा की कंक्रीट की प्रतिमा बनाते हुए. मूर्ति के केवल छोटे छोटे हिस्से बनाए जाते हैं. आज केवल दाढ़ी संवारी जाएगी