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Saturday 8 September 2018

जीवन धारा

गुड़िया का नाम श्वेता जरूर था पर रंग थोड़ा सांवला ही था. तीन साल की श्वेता सारे कमरों में उछलती कूदती रहती थी. उसकी दोस्ती महतो से ज्यादा थी जो उसे किचन से कुछ ना कुछ खाने के लिए देता या फिर रोती तो दूध की बोतल तैयार कर के दे देता था. शाम की दोस्ती दादी से थी जो उससे धीमी धीमी आवाज़ में प्यार से बातें करती. बातें करते करते दादी उसे लिटा देती और प्यार से बोतल मुंह में लगा देती और श्वेता दूध पीते पीते सो जाती. दादी भी लाइट बंद कर के सो जाती.

श्वेता की नहीं बनती थी तो अपनी मम्मी से जो सौतेली थी. उसे झिड़कती थी, डांटती थी पर कभी पुचकारती नहीं थी ना ही गोदी में लेती थी. मम्मी के सामने श्वेता सहमी सी मम्मी की चेहरे को गौर से देखती रहती. जैसे ही मम्मी के चेहरे का भाव बदलता फ़ौरन पढ़ लेती थी. दोनों हाथ पीछे जोड़ लेती और अपराधी की तरह डांट खाने के लिए मन बना लेती. मम्मी के डायलॉग सिमित से ही होते थे -
- नहा लिया या नहीं? माया इसे नहलाया था?
- हुंह देखो नंगे पैर घूम रही है? महतो इसकी चप्पल कहाँ है?
- देख लॉन में पापा के साथ कोई बैठा हुआ है. खबरदार जो पापा के पास गई.

पापा अक्सर देश विदेश के टूर पर रहते थे. आते जाते श्वेता को प्यार से मिलते थे और टाइम हो तो साथ खेलते भी थे. खूब सारे खिलौने और कपड़े लाते और फिर फुर्र हो जाते. दादी ही मम्मी पापा का रोल करती और थोड़ा बहुत मम्मी पापा का रोल महतो करता था. स्कूल में दाखिल करने का टाइम आ गया तो पापा ने एक और नौकर रख लिया जो श्वेता को सुबह बस में बैठा कर आता, दोपहर को घर लेकर आता और उसके कपड़े खिलौने वगैरा समेटता रहता.

स्कूल में लंच टाइम में बच्चे अपनी अपनी मम्मी का बनाया कुछ लाते तो श्वेता को आश्चर्य होता की इनकी मम्मी किचन में काम करती हैं. हमारे घर में तो महतो है. स्कूल के फंक्शन में दादी ही जाती थी पापा या मम्मी कभी नहीं गए थे. स्कूल में सभी को दादी के बारे में पता था. पर श्वेता को आश्चर्य होता कि दूसरे बच्चों के माता पिता क्यूँ आते हैं उनकी भी दादी को ही आना चाहिए. किसी दिन इस बात पर क्लास में लड़ भी पड़ती थी. पर घर वापिस आने पर दादी उसे समझा बुझा देती थी. स्कूल में दो तीन साल गुज़ारने के बाद धीरे धीरे श्वेता का स्वभाव अक्खड़ सा होने लगा था. अब सौतेली मम्मी से थोड़ी थोड़ी नाराज़गी रहने लगी थी. अगर मम्मी डांटती या नाराज़ होती तो श्वेता रोती नहीं थी परन्तु उसकी नन्हीं मुठ्ठीयां थोड़ा सा कस जाती थीं.

श्वेता बड़ी हो रही थी और दादी बूढ़ी हो रही थी. बड़ी सी कोठी में दादी और श्वेता का का लाड़ प्यार बढ़ रहा था. श्वेता के कॉलेज के एडमिशन के समय मम्मी पापा भी ढल गए थे. उन दोनों की नोंक झोंक कभी कभी अब झगड़े में बदल जाती थी. पर अब श्वेता को काफी कुछ समझ आने लगा था. उसने ज़िद करके अपने लिए कार भी ले ली. दादी अब कोठी से बाहर कम ही जाती थी और गोलियां खाती रहती थी. मम्मी क्लब और किट्टी में बिज़ी रहती थी. और मम्मी की तल्ख़ जुबान अब पापा, दादी, श्वेता और नौकरों पर भी चलने लगी थी. श्वेता भी उकसाने में और जवाब देने में कमी नहीं रखती थी. इस से घरेलू वातावरण तनाव और बिखराव वाला हो गया था.

कॉलेज से डिग्री लेते ही श्वेता ने इधर उधर नौकरी ढूंढनी शुरू कर दी. एक सहेली की सहायता से एक विदेशी एम्बेसी में नौकरी लग गयी. श्वेता अपनी दादी की वजह से पापा की कोठी में ही रह रही थी वरना तो वो अलग अकेली रहना चाहती थी. मन ही मन दादी जाने से पहले उसकी शादी देखना चाहती थी और पापा से लगातार कहती रहती थी. पापा ने भी आखिर एक दोस्त का लड़का देख लिया. वो भी कहीं बाहर ही यूरोप में काम करता था. उसे श्वेता से मिलवाया. हाँ ना करते करते शादी हो ही गई. श्वेता ने दादी को भारी मन से पापा के पास छोड़ा और इंग्लैंड चली गई.

यूरोप की आबो हवा और तौर तरीके श्वेता को भा गए. पुरानी दुनिया भूल भाल गयी. शायद ही कभी दादी या पापा के अलावा उसने किसी को याद किया हो. कुछ ही दिनों बाद श्वेता के घर नन्हा बंटी आ गया. उसके पालन पोषण में कुछ ज्यादा ही समय लगाने लगी और पति से दूर होती गई. पति की नाराजगी और कटाक्ष बढ़ने लगे. तीन चार महीने के चिक चिक के बाद दोनों अलग हो गए. श्वेता ने बंटी को अपने पास रख तो लिया पर साथ में नौकरी करना मुश्किल हो रहा था. पूरे दिन की मेंड रखना खर्चीला पड़ रहा था. काफी सोचने के बाद एक दिन पापा को फोन लगाया. लम्बी वार्तालाप के बाद तय हुआ कि पापा उसके लिए एक अलग मकान का इंतज़ाम कर देंगे जो फिलहाल मम्मी को नहीं बताया जाएगा. बाद में श्वेता जैसा ठीक समझेगी बता देगी. श्वेता ने बोरिया बिस्तर बांधा और बंटी को ले कर वापिस आ गयी.

श्वेता ने फिर से नौकरी कर ली. मेड और नौकर रख लिए. खुद तो एडजस्ट हो गयी पर बंटी के लिए चिंतित रहती थी. यहाँ के स्कूल और पढ़ाई यूरोप के मुकाबले उसे ठीक नहीं लग रही थी. बंटी चार साल का हुआ तो उसे इंग्लैंड के एक अच्छे हॉस्टल वाले स्कूल में दाखिल करा दिया. उसको यहाँ बुलाने के बजाए खुद उसकी छुट्टियों में मिलने चली जाती थी.

इंडिया में अकेले रहना कभी अच्छा और कभी बुरा भी लगता था. यहाँ ताका झांकी बहुत थी. श्वेता के अकेले रहने पर कई तरह की अफवाहें और किस्से कॉलोनी में चलते रहते थे पर इन सब से उसे चिढ़ थी और लोगों से दूर रहना ही पसंद करती थी. कई बार विचार आया यूरोप जाने का. फिर सोच बंटी कुछ काम या नौकरी शुरू कर ले तब जाउंगी.

इसी सब उधेड़बुन में श्वेता के बाल श्वेत हो चले थे और घुटने परेशान करने लगे थे. फिर भी साल में एक बार बंटी से मिलने चली जाती थी. बंटी ने डिग्री ले ली और किसी दोस्त के साथ रेस्तरां खोल लिया. श्वेता को काम पसंद नहीं आया पर कुछ नहीं हो सकता था. बंटी ने वहीँ की एक लड़की से शादी कर ली और श्वेता को फोन पर बता दिया. फोन पर माँ बेटे की खूब तू तू मैं मैं हुई. उसके बाद काफी देर तक तो ये सवाल हल नहीं हुआ की पहले फोन कौन करे माँ या बेटा? बहु ने तो कभी फोन किया ही नहीं.

इधर पिताजी की तबियत खराब हुई और उनका स्वर्गवास हो गया. श्वेता के लिए काफी कुछ छोड़ गए पर कमी तो महसूस होती थी. मम्मी की हालत भी विशेष अच्छी नहीं रहती थी. दूसरे साल मम्मी भी चली गयी. कुछ कैश श्वेता को मिला पर मम्मी ज्यादातर जमीन जायदाद अपने रिश्तेदारों में बाँट गयी.

बंटी से बातचीत कम ही होती थी. उसने अपना फ्लैट भी खरीद लिया था और इंडिया आने से मना कर दिया था. बहुत सोच विचार करने के बाद श्वेता ने टिकट बुक कराई और मन मार कर बेटे बहू को मिलने का प्रोग्राम बना लिया. बेटे बहू के लिए कुछ कपड़े और गिफ्ट खरीदे. घुटने और शुगर की परेशानी भूल कर वहां पहुच गई. बेटा बहू दोनों खूब शौक से मिले पर उनके फ्लैट में रात नहीं रह पाई. कारण ये कि उन्होंने पास के एक होटल में श्वेता के रहने का इंतज़ाम कर दिया था. सारी रात श्वेता सो नहीं पाई, बेचैन रही और करवट बदलती रही. सुबह बेटा मिलने आया तो खीझ, गुस्से और प्यार के आंसू रोती रही. बोली मेरा टिकट करा दे मैं वापिस जाउंगी.

वापिस आने के बाद श्वेता का स्वास्थ गिरने लगा. सात महीने बाद वो आई सी यू में पहुँच गई. अड़ोसी पड़ोसीयों ने बंटी को फोन से खबर कर दी कि हालत नाज़ुक है आ जाओ. बंटी ने कहा की फ्लाइट बुक करा रहा हूँ एक हफ्ते से पहले नहीं आ पाऊंगा. हॉस्पिटल के बेड पर पड़ी श्वेता की बड़बड़ाहट में बंटी शब्द ही समझ आता था.

बंटी एक सप्ताह बाद आ गया. बंटी की आवाज़ कान में पड़ी तो माँ ने अधखुली आँखों से बंटी को पहचान लिया और बहुत खुश हुई. ख़ुशी में आंसू निकल पड़े. लरज़ती आवाज़ में बहू का हाल भी पूछा जो बंटी के साथ नहीं आई थी. तीसरे दिन श्वेता ने आँखें मूँद लीं.

बंटी ने अंतिम संस्कार कर दिया. साथ ही मम्मी का मकान बेचने के लिए पेपर में विज्ञापन दे दिया. उसे उम्मीद थी कि वापिस जाने से पहले मकान की डील हो जाएगी.   

जीवन धारा

   

1 comment:

Harsh Wardhan Jog said...

https://jogharshwardhan.blogspot.com/2018/09/blog-post_8.html