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Sunday 19 August 2018

हंसने की चाह

काफी बरस पहले शायद 1993 में स्वर्गीय श्री एस.एन. गोयनका जी द्वारा तिहाड़ जेल, नई दिल्ली में कैदियों के लिए विपासना कैम्प की शुरूआत की थी. उस वक़्त के अखबारों में उस विपासना कैम्प की काफी चर्चा हुई और फिर स्वाभाविक था की घर पर भी चर्चा हो. तब मुझे ऐसा लगा था कि गोयनका जी कोई मनोवैज्ञानिक होंगे और अपराधियों और कैदियों को 'विपासना' द्वारा सुधारने की कोशिश कर रहे होंगे. हमारे जैसे लोगों को गोयनका जी से या फिर विपासना से क्या लेना देना? बात आई-गई हो गई.

कई साल बाद अचानक यूट्यूब में गोयनका जी का प्रवचन सुना. अब चूँकि रिटायरमेंट के बाद समय था तो फिर से विपासना के बारे में इन्टरनेट पर खोजबीन शुरू की. पता लगा कि विपासना या विपश्यना तो मैडिटेशन या ध्यान या समाधि लगाने की एक प्राचीन विधि है जिसे गौतम बुद्ध ने पुनर्जीवित किया था और इसी विधि को अपनाकर निर्वाण का रास्ता खोज निकाला था. विपासना शब्द गूगल करने से आप बहुत सी जानकारी ले सकते हैं. भारत और विश्व के बहुत से शहरों में विपासना शिविर चलते हैं जिनमें ये विद्या सिखाई जाती है. आप इन प्रोग्राम की जानकारी भी इन्टरनेट में ले सकते है. इस जानकारी लेने के बाद हम दो बार दस दस दिन के शिविर में देहरादून में शामिल हुए. थोड़ा सा मुश्किल जरूर है पर किया जा सकता है. कोई फीस नहीं है हाँ कोर्स ख़त्म करने के बाद आप जो भी दान देना चाहें वो दे सकते हैं. किसी वर्ग, मत या धर्म विशेष के लिए ना होकर सभी के लिए है.

पस्सना या विपस्सना पाली भाषा के शब्द हैं और पश्यना या विपश्यना संस्कृत भाषा के. पश्यना का शाब्दिक अर्थ है देखना और विपश्यना का अर्थ है ठीक से देखना. जो जैसा है उसे ठीक वैसा ही देखना ना घटाना ना बढ़ाना याने reality check. आजकल पस्सना या विपस्सना के मुकाबले विपासना शब्द लोकप्रिय हो गया है.

आज के मनुष्य का शरीर, उसकी इन्द्रियां, शरीर की जरूरतें और मन में आते विचार वैसे ही हैं जैसे बुद्ध के समय में या उनसे भी पहले थे. मन में लगाव, राग-द्वेष, इर्ष्या, भय, लालच, आसक्ति, गुस्सा और प्रतिशोध की भावनाएं वैसी ही हैं. आज भी मन की इच्छा न पूरी होने पर हम दुखी होते हैं, आज भी अनहोनी से भय लगता है और आज भी अपनों से बिछड़ने में दुःख घेर लेता है. सब कुछ ठीक चल रहा हो तो अचानक नई समस्या बिन बुलाए आन खड़ी हो जाती है. और कुछ नहीं तो सफ़ेद बाल निकल आना या प्रमोशन ना होना ही ब्लड प्रेशर बढ़ा देता है.

और ये समस्याएँ केवल मेरी या आपकी नहीं हैं बल्कि हर एक की हैं. हर कोई इन्हीं में उलझा हुआ है. और इन समस्याओं के आने का कारण कोई ख़ास उम्र, या ख़ास स्थान या घटना या ख़ास व्यक्ति नहीं है बल्कि ये एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया है. अंतर्मन की ये प्रक्रिया ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेती. एक के बाद एक उलझनें मन में जमा होती जाती हैं और परेशान करती हैं. और इसके साथ ही शुरू हो जाती हैं धार्मिक गुरुओं और स्थानों की तलाश जहाँ से कुछ सुकून मिल सके. कभी मन की शांति मिल भी जाती है कभी नहीं भी और कभी कुछ देर के लिए. और कभी ऐसा भी हो जाता है कि गुरुजी भी घोटाला कर जाते हैं. निकले तो थे खुशी ढूंढने पर दुःख पीछा करने लगे. इस पर कपिल कुमार की लाइनें याद आ गई:
'हंसने की चाह ने कितना मुझे रुलाया है,
कोई हमदर्द नहीं दर्द मेरा साया है!'

ऐसा नहीं है की जीवन के दुःख समाप्त करने का रास्ता ही नहीं है. गौतम बुद्ध के अनुसार:
- जीवन में दुःख है,
- दुःख का कारण है,
- दुःख का अंत है और
- दुःख के अंत करने का रास्ता है.
बुद्ध ने मन का अशांत और विचलित रहने का सबसे बड़ा कारण मन में तृष्णा का होना बताया और तृष्णा के निवार.ण के लिए रास्ता भी बताया - अष्टांगिक मार्ग. ये अष्टांग हैं -
1. सम्यक दृष्टि - किसी भी बात, व्यक्ति या वस्तु जैसी है वैसी ही देखना,
2. सम्यक संकल्प - सही मानसिक और नैतिक मार्ग पर चलने का संकल्प,
3. सम्यक वाक - सदा सत्य बोलने का प्रयत्न,
4. सम्यक कर्म - हिंसा, चोरी और हानिकारक कर्म ना करना,
5. सम्यक जीविका - हानिकारक या अनैतिक व्यापार से कमाई ना करना,
6. सम्यक प्रयास - स्वयं सुधरने की कोशिश करना,
7. सम्यक स्मृति - भूत, भविष्य को छोड़ वर्तमान की सच्चाई में रहना
8. सम्यक समाधी - ऊपर के सात नियमों पर चल कर दुःख से निर्वाण.

और मुक्ति भी इसी जनम में !

सब का मंगल होय 



                                                                       

1 comment:

Harsh Wardhan Jog said...

https://jogharshwardhan.blogspot.com/2018/08/blog-post_19.html