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Friday 6 April 2018

बुद्ध का मार्ग - कर्म और फल

कर्म और फल     

बौद्ध दर्शन में एक मूल, मौलिक और महत्वपूर्ण सिद्धांत है कर्म और फल का सिद्धांत जिसे पाली भाषा में पटिच्चसमुप्पाद, संस्कृत में 'प्रतीत्य समुत्पाद' और इंग्लिश में dependent coarising कहा जाता है. हिंदी में इसे कार्य-कारण, कारण-परिणाम या फिर कर्म और विपाक( विपाक अर्थात कर्म का फल ) का सिद्धांत भी कहा जाता है. प्रतीत्य समुत्पाद को 'भवचक्र' भी कहा जाता है क्यूंकि ये हमारे भव या becoming का विश्लेषण है. प्रतीत्य समुत्पाद को  'द्वादशनिदान' भी कहा जाता है क्यूंकि इसमें बारह बिंदु हैं और इन बिन्दुओं में पूरे जीवन का निदान या diagnosis है.

प्रतीत्य समुत्पाद में  प्रतीत्य शब्द का अर्थ है घटना घटित हो जाने पर या घटना के बीत जाने पर और समुत्प्पाद का अर्थ है नई घटना का घटना या कुछ नया उत्पन्न होना. सरल शब्दों में इसका अर्थ हुआ कि एक घटना घटित हो जाने के परिणाम स्वरुप कोई और घटना घट जाती है और यह सिलसिला जारी रहता है. यह क्रम सीधा और सरल ना होकर एक जटिल जाल की तरह है. जल, थल और नभ में हर क्षण कुछ न कुछ घटित होता रहता है और इन घटनाओं के मिलेजुले परिणाम होते रहते हैं जो दूसरी घटनाओं को उत्पन्न करते रहते हैं. इन सब घटनाओं का एक प्रवाह चलता रहता है. अर्थात संसार परिवर्तनशील है. ये घटनाएं भौतिक हों या अभौतिक, चेतन हों या अचेतन, विचार हों या वस्तु किसी ना किसी कारण से होती हैं बिना कारण के नहीं. इसका कोई अपवाद नहीं है.

प्राणी समाज के लिए घटनाएं कर्म पर आधारित हैं और उनके परिणाम ( विपाक ) के अनुसार फिर कर्म का चक्र आगे चलता रहता है. क्यूंकि संसार का चक्र परिवर्तनशील है इसलिए दुखदायी है. दूसरे शब्दों में कारण के होने पर ही कार्य होता है और कारण ना होने पर कार्य नहीं होता जिसका अर्थ है की हम दुःख को समझ लें, कारण ढूँढ लें तो दुःख को रोक पाएंगे.

प्रतीत्य समुत्पाद को ध्यान में रखते हुए जटिल जीवन चक्र को गौतम बुद्ध ने कैसे सरलता से समझाया आइये देखते हैं. संयुक्त निकाय के बुद्ध वर्ग के विपस्सी सुत्त में गौतम बुद्ध कहते हैं कि
- भिक्खुओ बौद्ध होने से पहले जब मैं विपश्यना ( मैडिटेशन ) कर रहा था तो मन में सवाल थे - यह लोक दुखों से घिरा हुआ है. मानव पैदा होता है, बूढ़ा होता है, मर जाता है, और फिर जन्म ले लेता है. इस दुःख भरे चक्र से छुटकारा कैसे हो सकता है? कब मैं इस जरा-मरण के दुःख से छुटकारा जान पाऊंगा?

1. जरा-मरण क्या है?
किसी भी जीव का ढल जाना, दांत गिरना, झुर्रियां पड़ना, बाल सफ़ेद हो जाना, इन्द्रियों का शिथिल पड़ जाना, बूढ़ा होना इत्यादि 'जरा' या जर्जर होना या aging कहलाता है. पांच स्कंधों का छिन्न भिन्न हो जाना, चोला त्याग देना, सांस का न आना मरण कहलाता है. यही जरा-मरण है.

- भिक्खुओ मन में चिंतन किया. किसके होने से जरा-मरण होता है? जरा-मरण का कारण क्या है?
भली प्रकार चिंतन मनन से ज्ञात हुआ कि जन्म के होने से जरा-मरण होता है. जाति ही जरा-मरण का हेतु है.

2. जाति / जन्म क्या है?
जीव का प्रकट होना, पैदा हो जाना, पांच स्कंधों का मिलना, इन्द्रियों का जुड़ कर काम करने लग जाना यही जाति या जन्म या birth है.

चिंतन मनन का अगला सवाल था - किसके होने से जाति या जन्म होता है? जन्म का हेतु क्या है?
विचारने पर ज्ञात हुआ कि भव के होने से जाति होती है. भव ही जाति का हेतु है.

3. भव क्या है?
भव तीन प्रकार के हैं- 1. काम लोक में बने रहने की इच्छा अर्थात काम-भव या sensual becoming है, 2. रूप लोक में बने रहना की इच्छा रूप-भव या form becoming है और 3. अरूप लोक में बने रहना अरूप-भव या formless becoming है.

इस पर प्रश्न उठा कि किसके होने से भव होता है? भव का हेतु क्या है?
विचार करने के बाद ज्ञात हुआ कि उपादान के होने से भव होता है. उपादान भव का हेतु है.

4. उपादान क्या है? 
उपादान या आसक्ति या craving चार तरह की हैं. 1. काम से आसक्ति या sensuality clinging, 2.  मिथ्या दृष्टि से आसक्ति या false view clinging, 3. शीलव्रत से आसक्ति या precept & practice clinging और 4. आत्मवाद से आसक्ति या doctrine of self clinging.

अब सवाल ये था कि किसके होने से उपादान होता है? उपादान का हेतु क्या है?
गहन मनन के बाद प्रज्ञा जागी कि तृष्णा होने से उपादान होता है. तृष्णा ही उपादान का हेतु है.

5. तृष्णा कितने प्रकार की है?
तृष्णा छे प्रकार की है. 1. रूप तृष्णा या craving for forms, 2. शब्द तृष्णा या craving for sounds, 3. गंध तृष्णा या craving for smells, 4. रस तृष्णा या craving for tastes, 5. स्पर्श तृष्णा या craving for touch और 6. धर्म तृष्णा या craving for ideas.

प्रश्न है की किसके होने से तृष्णा होती है? तृष्णा का हेतु क्या है?
उत्तर है कि वेदना होने से तृष्णा होती है. वेदना ही तृष्णा का हेतु है.

6. वेदना कितने प्रकार की है?
 वेदनाएं छे प्रकार की हैं. 1. चक्षु के माध्यम से होने वाली वेदना या feeling born from eye contact, 2. कान के माध्यम से से होने वाली वेदना, 3. नाक के माध्यम से होने वाली वेदना, 4. जीभ के माध्यम से होने वाली वेदना, 5. काया से होने वाला स्पर्श और 6. मन के संस्पर्श से होने वाली वेदना.

प्रश्न उठा कि किसके होने से वेदना होती है? वेदना का हेतु क्या है?
चिंतन मनन करने से उत्तर मिला कि स्पर्श के होने से वेदना होती है. स्पर्श ही वेदना का हेतु है.

7. स्पर्श कितने प्रकार के हैं?
छे तरह के स्पर्श हैं. 1. चक्षु स्पर्श या eye contact, 2. कान , 3. नाक, 4. जीभ, 5. काया और 6. मन स्पर्श.

इस पर फिर प्रश्न किया कि किसके होने से स्पर्श होता है? स्पर्श का हेतु क्या है?
विचार करने पर जाना कि षड़ायतन होने से स्पर्श होता है. षड़ायतन ही स्पर्श का हेतु है.

8. षड़ायतन क्या है?
षड़ायतन या सलायतन या six senses इस प्रकार हैं: 1. चक्षु आयतन या eye medium, 2. कान आयतन, 3. नाक आयतन, 4. जीभ आयतन, 5. काया आयतन और 6. मन आयतन.

अब प्रश्न ये था कि किसके होने से सलायतन होता है? सलायतन का क्या हेतु है?
विचार किया तो उत्तर मिला कि नाम-रूप होने से सलायतन होता है. नाम-रूप ही सलायतन का कारण है.

9. नाम-रूप क्या है? 
पृथ्वी,जल,वायु और अग्नि जैसे महाभूतों के संयोग से रूप बना. वेदना, संज्ञा, चेतना, और स्पर्श से मन और सबको मिला कर बना नाम-रूप या name-&-form.

अब सवाल ये उठा कि किसके होने से नाम-रूप होता है? नाम-रूप का हेतु क्या है?
विचार करने पर प्रज्ञा जागी कि विज्ञान के होने से नाम-रूप होता है. विज्ञान ही नाम-रूप का हेतु है.

10. विज्ञान कितने प्रकार के हैं?
विज्ञान छे प्रकार के हैं. 1. चक्षु विज्ञान या eye consciouness 2. कान, 3. नाक, 4. जीभ, 5. काया और 6. मन विज्ञान या intellect consciousness.

प्रश्न ये आया कि किसके होने से विज्ञान होता है? विज्ञान का क्या हेतु है?
मनन करने पर पाया की संस्कार के होने से विज्ञान होता है. संस्कार विज्ञान का हेतु है.

 11. संस्कार कितनी तरह के हैं?
संस्कार तीन प्रकार के  हैं. 1. काया संस्कार या bodily fabrications, 2. वाक् संस्कार या verbal fabrications और 3. चित्त संस्कार या mental fabrications.

मन में प्रश्न आया कि किसके होने से संस्कार होते हैं? संस्कारों का हेतु क्या है?
गहन चिंतन से पाया कि अविद्या के होने से संस्कार होते हैं. अविद्या ही संस्कारों का हेतु है.

12. अविद्या क्या है?
दुःख को ना जानना, दुःख के उदय को ना जानना, दुःख-निरोध को ना समझना और दुःख त्यागने का मार्ग ना जानना अविद्या कहलाता है.

यह बारह बिन्दुओं की श्रंखला हमें दुःख और दुःख के कारण बताती है . साथ ही अगर कारण पता हैं तो उन्हें दूर करने का उपाय भी मिल सकता है. इसी श्रंखला के बारवें बिंदु से पहले बिंदु तक भी विचार कर सकते हैं जैसे की:

अविद्या हो तो संस्कार जागते हैं,
> संस्कारों की वजह से विज्ञान है,
> विज्ञान है तो नाम-रूप है,
> नाम-रूप है तो षड़ायतन हैं,
> षड़ायतन के कारण स्पर्श हो जाता है,
> स्पर्श के कारण वेदना होती है,
> वेदना से तृष्णा उपजती है,
> तृष्णा से उपादान या आसक्ति हो जाती है,
> आसक्ति से भव जागता है,
> भव से जाति या जन्म होता है और
> जन्म से जरा मरण होता है.

अब अगर अविद्या का विनाश कर दिया जाए तो संस्कारों का विनाश हो जाएगा, संस्कारों के विनाश से विज्ञान का खात्मा हो जाएगा, विज्ञान का विनाश होगा तो नाम-रूप का भी विनाश होगा, नाम-रूप का विनाश होगा तो सलायतन का, सलायातन का विनाश हो जाए तो स्पर्श का विनाश हो जाए, स्पर्श का विनाश हो तो वेदना का विनाश हो जाए, अगर वेदना गयी तो तृष्णा भी गई, तृष्णा के विनाश से आसक्ति समाप्त होगी, आसक्ति नहीं तो भव नहीं, भव न हो तो जन्म नहीं और अगर जन्म नहीं तो जरा-मरण दुःख, चिंताएं और परेशानी नहीं.

अविद्या, संस्कार, वेदना, तृष्णा इत्यादि कैसे दूर होंगी? इसके लिए गौतम बुद्ध द्वारा बताई गई विपश्यना मैडिटेशन सीखनी होगी.

एकला चलो रे 

  

3 comments:

Harsh Wardhan Jog said...

https://jogharshwardhan.blogspot.com/2018/04/5.html

Raj said...

Sir,,

Salayatan aur Vigyan ekahi hai kya?

Harsh Wardhan Jog said...

Raj
जैसा कि लेख में है सलायातन और विज्ञान अलग अलग हैं