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Friday 30 September 2016

सेवा और मेवा

ठेकेदार और ठेकेदारनी दोनों भोत ख़ुस थे. पिछले साल बड़े बेटे जगतू का ब्या हो गया था और इस साल छोटे वाले भगतू का भी काम निपट गया. ठेकेदार ने सोचा अब दोनों बेटे खुद ही छोटे मोटे ठेके लेने सुरू कर देंगे. कब तक दारू पी के म्हारे सिर पे नाचते रहेंगे. अपनी ज़िम्मेवारी समझें खुद भी खाएँ और हमें भी खिलाऐं. 

ठेकेदारनी ने सोचा कि अब घर में दो दो बहुरिया आ गई हैं इसलिए अब तो सजधज के गाँव का फेरा लूंगी और रिस्तेदारी में बैठूंगी. अब तो खटिया पे बैठ के राज करुँगी राज. अब ना रसोई में क़दम रक्खूं. मैया री मैया बहुत कर ली क्यारी की गुड़ाई और गाय बकरी की चराई.

सुबह पांच बजे उठ कर नहा धो कर ठेकेदारनी तैयार हो जाती. अपनी और ठेकेदार की चाय बनाकर खटिया पर दोनों बैठ जाते और गर्म चाय की चुस्की लेकर बतियाते रहते. ठेकेदार बीड़ी सुलगा लेता. किसी किसी दिन ठेकेदारनी भी सुट्टा मार लेती.

आठ सवा आठ बजे तक ठेकेदार और दोनों बेटे रोटी टिक्कड़ की पोटलीयां ले के काम पर निकल जाते. उसके बाद दोनों बहुओं को ठेकेदारनी काम पर लगा देती,
- ए बड़ी तू गाय चरा ल्या और खुरपा रख ले साथ. निचले खेत में खर पतवार की गुड़ाई कर दियो.
- छोटी तू बकरियां ले जा और दराती साथ रख ले. दो चार लकड़ियाँ काट लियो चूल्हे खातर.

उनके जाने के बाद अपने कमरे में जाकर दरवाज़ा अन्दर से बंद कर लेती, तखत के नीचे से पुराना महाभारत काल का ट्रंक खींच कर ताला खोलती. ट्रंक के अंदर कपड़ों के नीचे से छोटी संदूकची निकालती फिर उसमें से जेवर की पोटली निकालती. देखते ही ठेकेदारनी मुस्करा देती. दो चूड़ियाँ निकाल कर पहन लेती और सहेलियों से बतियाने चल पड़ती.

एक दिन दोपहर बाद वापिस आकर नीम तले खटिया पर पसर गई. छोटी आई तो उससे पुछा,
- अरे क्या कर आई ? चल आजा इधर और जरा पैर दाब दे. अरे उल्टा पैर दबा दूसरा तो बड़ी दाबेगी. और ध्यान से सुन ले उलटे पैर के बिछुए, उलटे हाथ की चूड़ियाँ और उलटे कान की झुमकी तेरे लिए हैं. सेवा करेगी मेवा पाएगी. और खबरदार जो तैने बताया किसी को तो.

ऐसा ही हलफनामा ठेकेदारनी ने बड़ी बहुरिया से भी ले लिया. अब बिना जुबान खराब किए ठेकेदारनी के दिन आराम से कटने लगे. पर सास की लगातार सेवा और उसकी तानाशाही से दोनों बहुए तंग भी होने लग गई थीं. सासू जी महीने दो महीने में नया जेवर पहन लेती तो दोनों सहम कर चुप हो जाती.

इधर दो तीन दिन से छोटी भुनभुना रही थी. गुस्से में बोली तो कुछ नहीं पर सास को ठंडी चाय दे गई. सास ने बाएं हाथ की चूड़ी उतार कर दाहिने हाथ में पहन ली. छोटी जब पैर दबाने बैठी तो देखकर हैरान परेसान हो गई. फिर से गरम चाय ला कर दी तो सांझ को चूड़ी वापिस अपनी जगह आ गई !

पर छोटी ने बड़ी के सामने दिल खोल दिया और बड़ी ने छोटी के सामने. दोनों ने प्लान बना ली. सासू की खटिया के सामने प्लान के मुताबिक झगड़ना सुरू कर दिया. छोटी ने सासू के दाहिने पैर पर चपत मारी और बोली,
- ले बड़ी यो तो तेरा पैर है न ?
बड़ी ने सासू का बांया कान पकड़ कर खींचना सुरू कर दिया,
- बोल छोटी यो तेरा कान है मरोड़ दूं ?
छोटी तब तक डंडा ले आई.
ठेकेदारिन चिल्लाई 'मैया री-ईईई' और खटिया से छलांग लगा कर भाग ली.

मेरो गांव
... गायत्री वर्धन, नई दिल्ली.


Tuesday 27 September 2016

खिसकते महाद्वीप

पिछले दिनों 'नेशनल जियोग्राफिक' में ब्रायन क्लार्क होवार्ड का एक लेख छपा जिसमें कहा गया है कि ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप हर साल 2.7 इंच आगे खिसकता जा रहा है. 1994 के बाद से ये महाद्वीप 4.9 फीट आगे खिसक चुका है और अब GPS की सेटिंग दोबारा से करनी पड़ रही है.

ये बात तो साहब अपने पल्ले नहीं पड़ी और बड़ी अजीब सी भी लगी. कौन जाने आने वाले समय में ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप की खिसकने की सालाना स्पीड इंचों से बढ़कर फुटों में, फुटों से बढ़कर गजों में, गजों से बढ़कर मीलों में हो जाए ? गजब हो जाएगा ! मान लीजिये दिल्ली से हवाई जहाज़ में बैठें और वहां पहुँच कर जब सिडनी में उतरने लगें तब तक महाद्वीप आगे खिसक जाए ? और पायलट कहे,
- देवियो और सज्जनों हवाई अड्डा 72 मील आगे खिसक गया है इसलिए कृपया बढ़ा हुआ किराया जमा करा दें ताकि मैं जहाज़ नीचे उतार सकूँ !
अब तो ऑस्ट्रेलिया का दौरा रद्द !

फिर इन्टरनेट में इस विषय पर खोजबीन की तो मजेदार बात पता लगी. धरती की जिस सतह पर हम रह रहे हैं वो लगभग 80 से 100 किमी तक मोटी है. ये सतह एकसार या एकजुट न हो कर ऊँची नीची और टुकड़ों में है जिन्हें टेकटोनिक प्लेट कहते हैं. ये धरती की प्लेटें कभी कभी खिसकती और हिलती भी हैं पर ज्यादातर एक जगह रुकी हुई रहती हैं. बड़ी प्लेटें सात हैं और मध्यम / छोटी 100 से भी ज्यादा. बड़ी प्लेटें हैं :
- अफ़्रीकी प्लेट
- यूरेशिया प्लेट
- उत्तर अमरीकी प्लेट
- दक्षिण अमरीकी प्लेट
- प्रशांत प्लेट,
- हिन्द-ऑस्ट्रेलियाई प्लेट
- अंटार्कटिक प्लेट 
अब तक तो नाश्ते के लिए स्टील की प्लेट, कांच की प्लेट, पेपर प्लेट और चीनी मिट्टी की प्लेटें ही सुनी थी पर ये तो ज्यादा ही बड़ी निकलीं !

और ये सभी टेकटोनिक प्लेटें हिलती हैं तो हिला देती हैं याने भूचाल आ जाता है. और टकराती हैं तो पर्वत बन जाते हैं. विकिपीडिया से लिए गए निचले चित्र में देखिये भारतीय प्लेट को जो चलते चलते यूरेशिया प्लेट से टकराई चली जा रही है और हिमालय उठता जा रहा है ! हालांकि ये टकराव अंदाज़न सात करोड़ दस लाख साल में हुआ है !

अब तो ऑस्ट्रेलिया के आने का इंतज़ार है. हो सकता है आस्ट्रेलिया प्लेट की स्पीड जल्दी ही बढ़ जाए और क्या जाने किसी दिन ये आस्ट्रेलिया अपने कंगारूओं के साथ कन्याकुमारी के सामने लंगर डाल दे ! घूमना आसान हो जाएगा.

भारतीय प्लेट का उत्तर की ओर खिसकाव - विकिपीडिया से साभार

ब्रायन क्लार्क हॉर्वर्ड का लेख इस लिंक पर पढ़ा जा सकता है : Australia Is Drifting So Fast GPS Can't Keep Up via



Tuesday 20 September 2016

जहर

जबलपुर कैंट में हमें तीन कमरे का क्वार्टर मिला हुआ था. जैसा की आम तौर पर छावनी में होता है ऐसे चार क्वार्टरों की एक लम्बी सी बैरक थी. इस बैरक का लम्बा कॉमन बरांडा था जो बच्चों के खेलने के काम आता था. बरांडे के आगे चार बगीचे थे जिनमें सब्जियां और कुछ फूल पौधे लगे हुए थे. बगीचों की टेढ़ी मेढ़ी बाड़ के साथ साथ सड़क थी जिसके पार दूर दूर तक खेत नज़र आते थे. खेतों के पीछे बहुत दूर पहाड़ियां नज़र आती थी.

ये पहाड़ियाँ दोपहर के सूरज से नाराज़ होकर तपने लगतीं पर सुबह शाम मुस्कराहट के साथ ठंडक भी देतीं. इन पहाड़ियों में रहने वाले दोपहर को छांव ढूंढ कर सुस्ताते रहते थे और ठंडक में ही बाहर निकलते थे जैसे की सांप, बिच्छू, तीतर, बटेर, लोमड़ियाँ, गीदड़ वगैरा. इसलिए पहाड़ी की तरफ जाना मना था.

पर इन जीवों को हमारे घर आना मना नहीं था. कभी बगीचे के सूखे पत्ते हटाते तो पतला लम्बा सांप सर्र से भाग लेता. कभी पिछले आँगन में रखी आलू प्याज की टोकरी में से ताम्बे जैसे रंग का बिच्छू निकल आता. सांप तो तुरंत भाग जाते थे पर बिच्छू अक्सर मारा जाता था. सांप को सज़ा देने पर कोई सहमति नहीं बनती थी. कोई कहता 'मारो स्साले को', कोई कहता 'जान दो जान दो', काम करने वाली बाई हाथ जोड़ कर कहती, 'बाहर दूध का कटोरा रख दो बाउजी आपका भला होगा'.

पर सुना था की सामने वाले खेतों में और पहाड़ी पर बड़े बड़े सांप रहते थे. फसल कटाई के समय इधर उधर तेजी से भागते हुए देखे जाते थे. ऐसे ही एक बार बिरजू अपने साथियों के साथ खेत में कटाई कर रहा था तो उसे सांप काट गया. हल्ला मच गया और खेत में काम रुक गया. बिरजू ने अपने बाएं पैर के अंगूठे की ओर इशारा किया और बताया कि काला, लम्बा और मोटा सांप काट गया. काटे का निशान खून से लाल था और आसपास नील पड़ने लगा था. साथियों में फुसफुसाहट शुरू हो गई थी की ये सांप खतरनाक कौड़िया नाग है. बिरजू अस्पताल भी नहीं पहुंचेगा बल्कि रस्ते में ही टें बोल जाएगा. घंटे भर बाद तो शायद देवता भी ना बचा पाएंगे बिरजू को.

बिरजू को भी इसकी जानकारी रही होगी. उसने एक बड़ा सा पत्थर उठाया उस पर अपना पैर इस तरह जमाया कि अंगूठा बाहर लटका रहे. फिर अपने हंसिये से पूरी ताकत लगा कर देवता के नाम की हुंकार भरते हुए अंगूठे पर वार कर दिया. अंगूठा कट कर अलग जा गिरा. बिरजू का पैर खून से लथपथ लाल हो गया और वो खुद भी खेत में गिर पड़ा. भागम भाग बिरजू को अस्पताल पहुँचाया गया. खैर शाम तक घर भी आ गया. आस पास के इलाके में बिरजू की अकलमंदी की बड़ी चर्चा हुई. आपको तो पता होगा की कौड़िया नाग बस एक घंटे की मोहलत देता है उससे आगे के सांस देवता के हाथ में भी नहीं है.

दो दिन फसल कटाई बंद रही. तीसरे दिन बिरजू भी जोश जोश में टोली के साथ लाठी का सहारा लेता हुआ वहीं जा पहुंचा. वहां उसका हंसिया भी पड़ा था और कटा हुआ अंगूठा भी. जहर की वजह से अंगूठा नीला-काला पड़ चुका था और बदबू आ रही थी. उसने अपनी हंसिया उठाई और आसमान की तरफ दिखा कर देवता की प्रार्थना की और धन्यवाद भी दिया. फिर झुक कर हंसिये की नोक से अंगूठे को उलट पलट करने लगा. हंस भी रहा था और काले अंगूठे को हिला डुला भी रहा था. शायद हंसिये की नोक से कटे अंगूठे में कोई छेद हो गया था और उसमें से कोई छींट उसकी आँख में पड़ गई. आँख मलते हुए बिरजू जोर से चिल्लाया 'ज..ह..र' और गिर कर तड़पने लगा.

बिरजू को उठा कर अस्पताल की तरफ भागे पर उसने रस्ते में ही दम तोड़ दिया.

खेत और पहाड़ियाँ 


Friday 16 September 2016

बदलाव की गाड़ी

साइकिल थी तो धीरे धीरे मजे मजे में चलाते थे. गांव से शहर तक जाने में एक घंटा लग जाता था. अगर शहर की तरफ जाते जाते शहर से वापिस आता हुआ हरेंदर मिलता तो हम पैडल रोक लेते और बायां पैर सड़क पर टिका कर खड़े हो जाते थे. वो भी सड़क के दूसरी तरफ बायां पैर टेक कर खड़ा हो जाता था और दोनों बतिया लेते,
- अबे कित गया था ?
- नूं इ दर्जी तक गया था. तू कित जा रा ?
- चिट्ठी गेरने बड्डे डाकखाने.
- जा तू.
- यो अमरुद खा ले.
हम दोनों दाहिने पैर से अपनी अपनी साइकिल के पैडल दाब देते और अपने अपने रस्ते हो जाते थे. दूर दूर तक सड़क खाली. कभी कभी कोई खरगोश या लोमड़ी या सांप रस्ता काट जाता था पर बाकि शान्ति रहती थी.

फेर फटफटिया आ गई तो बस बीस मिनट में शहर. गाँव के खेतों में से शहर की तरफ फटफटिया चलाने में बड़ा मजा आवे था. एक तो खाली सड़क पे फटफट की गूँज और दूसरे कमीज के कॉलर की फड़-फड़. भई वाह सारे पैसे वसूल ! शहर से आता हरेंदर दिखा तो ब्रेक मारी, बायां पैर सड़क पर टिकाया और फटफट रोक के खड़े हो गए. परली साइड हरेंदर ने अपनी फटफटिया रोकी,
- अबे कित गया था ?
- नूं इ कट्टिंग करान गया था. और तू कित जा रा ?
- फोटू खिंचाई थी परले रोज वो लेन जा रा.
- जा तू.
- यो ले अमरुद.
दोनों ने गियर डाले और दोनों फटफटिया विपरीत दिशा में दौड़ने लगी. थोड़े बहुत साइकिल वाले और दो एक दुपहिया नज़र आने लगे थे सड़क पर. कभी कभी ट्रेक्टर या तिपहिया भी मिल जाता था.

फेर आ गई मरूति. लेनी जरूरी थी भई मूंछ का सवाल था जबकि मूंछ में भी सफेदी आ गई है. अब कार से शहर जाने में आधा घंटा लगने लग गया है जबकि शहर बढ़ता हुआ खुद ही गांव के नज़दीक आ रहा है. साइकिल, दुपहिया, तिपहिया और चौपहिया ज्यादा हो गए हैं. ट्रेक्टर में ट्राली जुड़ गई है. बैलगाड़ी और तांगा अभी भी हैं. इसलिए अब कार धीरे धीरे चलाते हैं. अब अक्सर सड़क पर कुचला हुआ सांप और मरे हुए कुत्ते भी दिखने लग गए हैं. अब शहर जाते हुए अगर सामने से हरेंदर की गाड़ी दिखती है तो बस हम दोनों एक दूसरे को हाथ हिला देते हैं रुकते नहीं.
कई बार हाथ भी नहीं हिला पाते.
अमरुद का आदान प्रदान भी अब बंद हो गया है.

बदलाव 

  

Friday 9 September 2016

बेटा बेटी

मंदिर से निकल कर मिसेज़ मेहता ने मिसेज़ गुप्ता से बोली,
- अच्छा जी चलती हूँ मैं. बहू के आने का टाइम हो गया है.
- आपका ख्याल रखती है कि नहीं ? हमारी तो बिचारी सुबह सुबह निकल जाती है रात को आती है. अपना ही ख्याल नहीं रख पाती उल्टा हमें ही उसका ध्यान पड़ता है. क्या करें आजकल नौकरियां ही ऐसी हो गई हैं. ना आने का टाइम  है ना जाने का. फिर ये मीटिंग शीटिंग आजकल बहुत चल पड़ी हैं. कभी बम्बे जाना है तो कभी बंगलोर.
- ना ये तो आ जाती है छे सवा छे. भई पीठ पीछे कै रई हूँ ख्याल रखती है. बेटा बहू दोनों ही ख्याल रखते हैं जी. जो सच्ची बात है सो है.
- नईं वैसे तो ठीक है. बाहर भी जाते हैं तो भी ध्यान रखते ही हैं. तक़रीबन हर सन्डे बाहर ही खाते हैं तो मुझे भी ले जाते हैं. पर थकावट हो जाती है जी. आजकल इतने अंग्रेजी खाने चल पड़े हैं न जी कि बस हमें तो नाम ही याद नहीं रहते ना ही हजम होते हैं जी अब.
- हंजी हंजी वो तो है. हमारी बहू भी कह रही थी कि शनिवार को डिनर पर चलेंगे. अच्छा जी मिसेज़ गुप्ता बाय.

चलते चलते मिसेज़ मेहता को ख़्याल आता रहा कि बेटा बाहर ले जाता है पर ना तो ज़्यादा खाने को मनुहार करता है और ना ही फिरंगी चीज़ें खाने देता है. बेटी तो हर चीज़ खिलाती है सच बेटियों की बात ही और है. बेटी भी दिल्ली में ही रहती है और महीने मे दो तीन बार मिलने आ जाती है और मॉ को अपने प्यार दुलार से सरोबार कर जाती है. बहू बेटे के पास बात करने के लिए रोज़ कोई नया विषय तो होता नहीं सो बात तबीयत ठीक है ?, दवाई ले ली ?, आराम कर लो, नींद ठीक से आई ? वगैरा तक सीमित रहती थी. बेटी के पास मसालेदार विषय बहुत थे. कभी ननद का, कभी सास ससुर का, देवरानी का या फिर पतिदेव का. मिसेज़ मेहता को भी इन बातों में आनंद आता था. बेटी के साथ पूरा दिन भी कम पड़ जाता था. पर उसके जाते ही मिसेज़ मेहता थोड़ी देर गुमसुम हो जाती थी. बेटा माँ को जितना नियम से रखता बेटी एक दिन के लाड़ प्यार में सारे नियम भूला देती. 

शनिवार शाम को बहू ने तैयार होने को कहा साथ में कह दिया की जेवर ना पहनना क्यूंकि रात हो जाएगी. तीनों तैयार हो कर रेस्टोरेंट पहुँच गए. बेटे ने कहा,
- मम्मी आपके लिए क्या आर्डर करूं ? पीज़ा और नॉन-वेज तो आपके लिए ठीक नहीं रहेगा. बाकी आप बताओ. पर आप प्लीज़ ध्यान रखना कल को कोई प्रॉब्लम नहीं होनी चाहिए.
मम्मी ने दाल रोटी खाई.

अगले शनिवार बहू बेटे ने किसी पार्टी में जाना था इसलिए मिसेज़ मेहता ने बेटी को फ़ोन कर दिया. बिटिया ने कहा कि वो शाम को पिक कर लेगी और डिनर करा के वापिस ड्राप कर जाएगी. शनिवार शाम बिटिया आ गई और मम्मी को लिपट गयी,
- ओहो ! मम्मी ये सूट नहीं चलेगा. प्लीज बदलो इसको. अपनी नीली वाली साड़ी निकालो, गले में कुछ पहनो. कोई परफ्यूम लगाओ. अच्छी तरह तैयार हो जाओ ज़रा अब तो मज़े करने के दिन हैं तुम्हारे.
मम्मी, बेटी और जमाई राजा तीनों रेस्टोरेंट पहुंचे. बेटी ने मम्मी से कहा,
- अब बताओ क्या खाओगे मम्मी ? नूडल्स ले लो, चिकन ले लो नहीं तो पास्ता ले लो. जो दिल करता हो खाओ, शौक से खाओ.

मम्मी ने थोड़ा थोड़ा सभी कुछ खा लिया. रात दस बजे घर वापिस आ गए. 11 बजे बेटा बहू भी आ गए. लगभग 12 बजे मम्मी के पेट में दर्द होने लगा. पहले तो लगा अभी ठीक हो जाएगा पर फिर बिस्तर से उठना ही पड़ा. दर्द भी हो रहा था और घबराहट भी कि बेटा डांटेगा.

लाइट जलाई और दवाइयों का पिटारा खोला और गोली ढूंढ ली. स्टील के गिलास में बड़ी सावधानी से पानी डाला ताकि आवाज़ ना हो. लेकिन सावधानी कुछ ज्यादा हो गई और भरा हुआ गिलास गिर पड़ा. बेटा भागा हुआ आया और जान गया की रात को जागना पड़ेगा. मम्मी की क्लास तो उसी वक़्त रात को 12.30 बजे ही लग गई. 

सुबह बिटिया का फ़ोन आया.
- मम्मी आप कैसी हो ?
- कैसी क्या ? तेरे लाड में जाने क्या क्या खा लिया. रात से पेट में दर्द हो रहा है. अब गोलीयां खा रही हूँ और साथ में तेरे भाई की डांट पी रही हूँ. बहुत गुस्से में है. और सुन ले, तेरी क्लास शाम को लगने वाली है !

आप क्या लेंगे ?

- - - गायत्री वर्धन, नई दिल्ली.



Tuesday 6 September 2016

नीम हकीम

कायदे से तो रंगरूटों से, अनाड़ियों से और नीम हकीमों से बच के रहना चाहिए. अगर कोई नौसिखिया L लिख कर गाड़ी चला रहा हो तो तुरंत वो रास्ता छोड़ दीजिये. अगर कोई ट्रेनी होटल में आपकी सेवा कर रहा हो और आपने वेज आर्डर किया हो तो वो शायद नॉन-वेज ही ले आएगा. या अनाड़ी मिस्त्री से अपनी फटफटिया में पंचर बनवाया तो पहिया फिट करने के बाद शायद ब्रेक कसना भूल जाएगा. पर हमारा वास्ता पड़ गया मेडिकल कॉलेज के नौसिखिया याने इंटर्न डॉक्टर से.

- डॉक्टर साब एक महीना हो गया दवाई लेते हुए पर ये बाजू पर से खुजली ख़तम ही नहीं हो रही. वैसे का वैसा लाल निशान बना हुआ है.
- हूँ. हाँ ये तो वैसा ही है. आप एक टेस्ट करा लो.
- जी ठीक है.
- पहले सामने वाले केबिन में प्रोफेसर गुप्ता हैं उन्हें दिखा लो.
प्रो. गुप्ता स्किन स्पेशलिस्ट से मिलकर हाल बताया,
- डॉक्टर साब एक महीने से दवाई ले रहा हूँ पर ये देखिये ठीक ही नहीं हो रहा. वो डॉक्टर कह रहीं हैं कि टेस्ट करा लो.
- हूँ. कब से है ? पर्चा दिखाओ ? पहले से कम नहीं हुआ ? हूँ टेस्ट करा ही लो अच्छा रहेगा.
पर्चा लेकर वापिस असिस्टेंट प्रोफेसर डॉक्टर श्रीमती सक्सेना के पास पहुँच गए.
- डॉक्टर साब प्रोफेसर गुप्ता कह रहे हैं के टेस्ट करा ही लो.
- हाँ मैंने तो पहले ही कहा था आपको. आप बैठो जरा.

घंटी मार के श्वेता को बुलाया. श्वेता पतली दुबली लड़की सफ़ेद कोट पहने हुए हाज़िर हो गई जाहिर था कि मेडिकल की छात्रा रही होगी.
- इनका टेस्ट कर दो, पता है ना कैसे करना है ? इनको साथ ले जाओ. आप जाइए इनके साथ.

- आप यहाँ लेट जाइए प्लीज, डॉ. श्वेता ने कहा और झट से एक डॉ. कविता भी आ गयी. उसने भी सफ़ेद कोट पहना हुआ था. मतलब दोनों ही छात्राएं थी. दोनों ने तैयारी शुरू कर दी. एक दूसरे को बताती भी जा रहीं थी.
- कॉटन रख ली ? इंजेक्शन ले लिया ? लोकल अनस्ठेशिया ले लिया और टेस्ट ट्यूब ?
उनकी बातों से नौसिखिया-पन साफ़ झलक रहा था. खुदा खैर करे !

- आप बाजू सीधा रखें, डॉ. श्वेता ने कहा. कलाई पर एक जगह रुई से दवाई लगाई फिर वहां इंजेक्शन लगा दिया.
- दर्द है ? अब कम है ? अब नहीं है ? नहीं है न ?
- नहीं दर्द नहीं है. सुन्न हो गया है.
इस बीच केबिन में कोई आया. डॉ. श्वेता बोली,
- हरेंदर सुबह से नज़र नहीं आये ? इतनी जोर से भूख लगी हुई है. ये लो कुछ खाने के लिए ले आओ.
- अभी लो जी. क्या लाऊं ? जूस ?
- अरे आपको खाने को बोला है आप जूस की बात कर रहे हो. जल्दी ले आओ. जो मिलता है वही ले आओ. आपको दर्द तो नहीं हो रही है ? कविता वो बॉक्स देना.
- डॉ साब आप पहले नाश्ता कर लो.
- हूँ ! कहकर डॉ श्वेता ने बॉक्स में से लम्बी सी सलाई निकाली जिसके सिरे पर गोलाई में बारीक दांत बने हुए थे जैसे मिनी गियर हो. उसे स्किन पर लगा के जोर से दबा के गोल घुमाया तो चमड़ी का पीस बाहर निकल आया. उसे टेस्ट ट्यूब में डाल दिया.
- कविता इनकी बैंडेज कर दो.

डॉ श्वेता ने टेस्ट ट्यूब पर चेपी लगा कर नाम लिख दिया और ट्यूब का मुंह सील बंद कर दिया. अब सैंपल लेकर हम तीनों फिर असिस्टेंट प्रोफेसर डॉक्टर श्रीमती सक्सेना के पास वापिस पहुंचे. वो देखते ही तुनक कर बोली,
- ये क्या किया श्वेता ? हेल्दी स्किन का सैंपल निकाल लिया ? जहाँ इन्फेक्शन है वहां से सैंपल लेना था. दोबारा करो.

ये होता है अनुभव दूर से ही भांप लिया. चलिए साब हम तीनों के चेहरे उतर गए. तीनों वापिस केबिन में आ गए. फिर लिटाया गया, इस बार दूसरी जगह पर अनेस्थिशिया लगाया गया, फिर से इंजेक्शन लगाया गया और फिर से चमड़ी उधेड़ दी गई. चमड़ी नई टेस्ट ट्यूब में डाल कर डॉ श्वेता द्वारा नाम की चेपी लगा दी गई और ट्यूब का मुंह सील कर दिया गया. डॉ. कविता ने नई पट्टी कर दी और टेस्ट ट्यूब लेकर लैब की ओर प्रस्थान कर गयी. डॉ. श्वेता बर्गर खाने लगी और हम कलाई पर दो पट्टियाँ बंधवा कर बाहर नीम के नीचे बेंच पर बैठ गए.
नीम हकीम ख़तरा-ए-चमड़ी !

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