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Monday 22 August 2016

भूत

दिल्ली से अपने गांव जिबलखाल, जिला पौड़ी गढ़वाल आये कुछ दिन बीत चुके थे. अब तक गांव के भूगोल की भी जानकारी हो गई थी. मसलन मकान के दायीं ओर से नीचे जाने वाली तंग पगडण्डी पानी के स्रोत की तरफ जाती थी. बायीं ओर से खेतों की मुंडेर पर चल कर नीचे नदी की तरफ जा सकते थे. अगर मकान की बालकनी में कुर्सी डाल कर बैठ जाएं तो बाईं तरफ के खेतों में अलग अलग और दूर दूर चार मकान थे. दाहिनी ओर उंचाई पर लगभग सौ मीटर की दूरी से जंगल शुरू हो जाता था.

घर के निचले कमरों मे रसद व ईंधन का गोदाम था. सामने बड़ा सा आहता था जिसमें  किनारे किनारे मुँडेर पर अमरुद और अनार के पेड़ थे. एक कोने पर केले के पेड़ों का झुण्ड था. सामने नीचे की और सीढ़ीनुमा खेत थे जो नदी तक फैले हुए थे. नदी के उस पार वाली पहाड़ी पर घना जंगल शुरू हो जाता था. उस छोटी पहाड़ी के पीछे और ऊँची ऊँची पहाड़ियाँ थी और उनसे ऊपर नीला आसमान था. लगता था कि इन पहाड़ियों के पीछे दुनिया होगी ही नहीं.

रविवार के दिन नौकरी पर जाने वाले घर पर ही थे. रोज़गार के लिये लोग या तो ऊपर लैन्सडाउन या नीचे दुग्गडा जाते हैं. दोनों जगह पर कुछ सरकारी महकमे हैं. कुछ लोग मारवाड़ी लाला लोगों की नौकरी बजाते हैं. लाले भी पहाड़ों मे रच बस गये है पहाड़ी ग्राहक देखते ही पूछते हैं,
- भुली के चैणू ( बहन क्या चाहिये ) ?

दोपहर में काका बरामदे मे बैठे फ़सलों की निगरानी कर रहे थे. जैसे ही कोई लंगूर या बंदरों की टोली खेत में आती तो भोटी कुत्ते को उनके पीछे दौड़ा देते. भोटी भौंकता तो बंदर भाग जाते. कुछ बन्दर पेड़ पर चढ़कर ऊपर से घुड़की देते रहते. कभी कभी कोई लंगूर या बंदरों का सरदार बहादुरी से पेड़ से उतर कर कुत्ते को चांटा लगा देता. कुत्ता तो कूं कूं करता घर की तरफ़ दौड़ लेता और सरदार का झुंड पर दबदबा बन जाता. कभी पास के पेड़ पर नए पक्षी की आवाज़ सुनाई पड़ती. मतलब ये की समय बड़े मज़े से जा रहा था.

दोपहर को बाडा जी ( ताऊ जी ) के पोते प्रकाश और चुन्नु मिलने आ गये. बुआ जी चरण स्पर्श कहकर शर्माते हुए एक ओर बैठ कर बतियाने लगे, कुछ हिंदी और कुछ पहाड़ी में. ताऊ जी को भूत की बात बता रहे थे. 

- बाडा दो भूत सफ़ेद कपड़ों मे देर रात चीड़ के जंगल में दिखाई दिये. हमर पिछने पोड़ गे अर हम ऐथर ऐथर भूत हमर पैथर पैथर ( हमारे पीछे पड़ गए और हम आगे आगे भूत पीछे पीछे ). भागने पर रास्ता रोकने लगे. दोनों भूत बीड़ी माँग रहे थे और माचिस भी. हमने तो दी नहीं पता नहीं अगर दे देते तो वो पीछा ही नहीं छोड़ते. पर हमर पिछने सरा रास्ता खड़बड़-खड़बड़ होणी रै ( पर हमारे पीछे सारे रास्ते खड़बड़-खड़बड़ होती रही ).

मेरे लिये तो अनोखी व हास्यप्रद बात थी. मुझे मुस्कुराता देख दोनों भांप गये कि मैंने उनकी बात को गंभीरता से नहीं लिया. चुनांचे भूत होते है यह दिखाने के लिये देर रात को वहीं बरामदे में इकट्ठा होने का प्रोग्राम बना लिया.

रात्रि भोजन के बाद नौ बजे प्रकाश, चुन्नु और मैं बरामदे की मुँडेर पर बैठ गये. चारों और घना काला अंधेरा और गहरा सन्नाटा छा गया. एक ओर चाँद की हलकी सी रोशनी में गॉव के बीच से गुज़रते रास्ते के पत्थर चमक रहे थे. दूसरी ओर निचले घरों के छत के पटले ( छत पर लगे ढलवाँ पत्थर ) भी चमक रहे थे. पहाड़ों के सिरे और ऊँचे पेड़ चांद की रोशनी मे धुँधले से दिखाई दे रहे थे. हम सब अंधेरे मे आँखें गड़ाए बैठे थे जबकि पूरा गाँव गहरी नींद में जा चुका था. अपनी खुद की आवाज़ भी डरावनी लग रही थी. जंगल से कभी अचानक सूखे पत्तों की सरसराहट होती तो तेंदुए या बाघ का होने का डर जगा देता था. सब चद्दरों को और मजबूती से पकड़ लेते और सिमटने की कोशिश करने लग जाते.  

बैठे-बैठे रात के 11 बज गये. ऊपर स्याह काला आसमान एक फीका सा चाँद और टिमटिमाते तारे. बहुत ही सुन्दर सीनरी थी पर जब नज़रें सामने फैले घुप्प अंधेरे में जंगल की तरफ़ जाती तो कुछ न दिखता. जैसे जैसे रात बढ़ रही थी डर महसूस होने लगा था. पास से हवा का झोंका बहता तो लगता कोई पास से गुज़रा है. केले के पत्ते हवा से हिलते तो चांदनी उस पर उलटे सीधे डिज़ाइन बना देती देख कर अजीब सा लगता. 

सभी अनमने और उतावले से हो रहे थे कि तभी प्रकाश फुसफुसाया,
- वो देखो नदी से मशाल की लपट उठ रही है, दिखी ? वो गई उप्पर. उन्द जाणी उब आणी ( उप्पर जा रही है निच्चे आ रही है ). दिखी क्या ? अरे ध्यान से देखो ना.

पहले तो समझ नहीं आया. पर फिर ध्यान से देखा तो कुछ मशालें लप-लप करती हुई ऊपर नीचे हो रहीं थीं. ऐसा लगा कि पेड़ों के ऊपर ही ऊपर मशालें तेजी से इधर उधर नाच रहीं हैं. जंगल के इस भाग में जहाँ ये लप-लप डांस हो रहा था ठीक उसी के नीचे नदी किनारे मरघट याने शमशान घाट भी तो था.

सारे बदन में सिहरन फ़ैल गई और रोंगटे खड़े हो गए.

छोटी छोटी सी लपलपाती लपटें पेड़ों के ऊपर कूद रहीं थीं. लपटें पहाड़ की चोटी तक पहुँच रहीं थी और कुछ बीच में ही बुझ रही थीं. कई लपटें ऊपर से नीचे नदी की तरफ आ रही थी और बीच में ही कुछ कुछ लपटें बुझती जाती थी. वाक़ई इतनी तेजी से ऊपर नीचे लपटों का आना जाना समझ नहीं आया. किसी मनुष्य द्वारा तो यह संभव नहीं है फिर ये कैसे हो रहा है ? 

क्या ये सब कोई भूत प्रेत कर रहे थे ? सच में भूत हैं ? ये एक ही स्थान पर ही क्यूँ हो रहा था ? या कोई वहम था ? या मीथेन जैसी कोई गैस जल रही थी ? या मरघट में जले हुए कंकालों से फोस्फोरस की अधिकता हो जाती हो जिसके कारण फोस्फीन गैस बनकर लपटें निकल रही हों ? मन में अनेक प्रश्न चिन्ह लग गये. जाहिर है कि बाकी रात जाग कर कटी.

गाँव की शाम 
इस बात को अब 35-40 बरस हो गए हैं. गाँव में कई बार जाना हुआ पर रात को ठहरने का मौका नहीं मिला. इसलिए दोबारा वैसा दृश्य नहीं देखा.  
--- गायत्री वर्धन, नई दिल्ली.

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