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Sunday 24 July 2016

वो काटा

अगस्त का महीना आते ही दुकानों में  रंगे बिरंगी पतंगें और साथ में माँझे में लिपटी चरखियाँ दिखाई देने लगती हैं. पतले पतले रंगीन काग़ज़ और बांस की बनी हल्की फुल्की पतंग पतले से धागे के सहारे हवा भर के जब ऊपर उड़ती है तो वाह बस वो गाना याद आ जाता है, 
- चली चली रे पतंग मेरी चली रे ......
उड़ती पतंग, हथेलियों पर सरकते मांझे के साथ साथ पतंगबाज का मन भी आसमान छूने लग जाता है. 

पतंगों का इतिहास २००० वर्ष पूर्व चीन से जुड़ा हुआ है. चीनी पतंगे बड़ी होती हैं और इन्हें बनाने के लिये रेशमी धागा और बांस के हलकी और मजबूत खपचियां उस समय आसानी से उपलब्ध थीं. चीन से चली ये पतंग उड़ते उड़ते जापान, कोरिया, और थाईलैंड होती हुई भारत पहुँच गई. और यहाँ तक की पतंगबाजी नेता जी नगर नई दिल्ली के हमारे सरकारी क्ववाटर में घुस गई. 

हमारे भैय्या जगदीश पतंगबाजी के पक्के फैन थे और साथ में था उनका एक लंगोटिया यार चंदू. दोनों सातवीं क्लास में इकट्ठे पढ़ते थे. दोनों पतंग उड़ाने में, पेंचे लड़ाने में और पतंग लूटने में कॉलोनी में मशहूर थे. स्कूल की छुट्टी हुई और उनकी पतंगबाजी की तैयारी शुरू हो जाती थी. दोनों के पास पंतगबाजी के अनेक रंगीन क़िस्से थे जो पतंगबाज़ी को अनूठा रूप देते थे. उनसे सुन कर ऐसा लगता था कि इससे मज़ेदार तो कोई और खेल है ही नहीं. पतंगबाज़ी का उनका शौक़ किसी मौसम या दिन का मोहताज न था. 

सुबह सुबह माँझे पर शीशे का चूरा और चावल की लेई लगा कर धूप में टांग देते थे. कहते थे कि सूख कर मज़बूत हो जाएगा. बहुत से टेक्निकल शब्द प्रयोग करते थे - सद्दी, मांझा, कन्नी वगैरा. उनका दावा था की क्या मजाल किसी की पंतग उनसे ऊपर चली जाये. 

भैय्या पतंग उड़ाते तो चंदू चरखी थामते. पेंच लड़ते ही ऐसा शोर मचता जैसे जंग छिड़ गई हो ! छत पर आगे पीछे दौड़ लगती.
- अबे ढील छोड़ ढील.
- लपेट जल्दी लपेट. अबे यार सद्दी लपेट !
पेंच लड़ने के बाद पतंगें कभी अलग हो जाती या कभी कट जाती और हवा में बहने लग जाती. छतों पर धम-धम होने लगती तो आस पड़ोस की आंटियों से भी डांट पड़ती पर जोश में रत्ती भर फ़र्क़ न पड़ता. 

पेंच लड़ाने वालों के आस पास पतंग लूटने वाले भी होते जो हाथ मे डंडे या कँटीली झाड़ लेकर झपटने को तैय्यार रहते. पतंग लूटना भी एक अच्छी खासी कला है जो पतंगों के साथ लुप्त होती जा रही है. पतंग कटते ही लुटेरों की नज़रें आसमान में लहराती पतंग पर और दौड़ ज़मीन पर. इस भागमभाग में कुछ पता नहीं कि आगे गाड़ी है या गड्ढा है. बस जिसने लूट ली वो ही सिकंन्दर !

भैय्या चाहे अपनी पंतग कटी हो या दूसरे की अपना मांझा और चरखी दोस्त के पास फेंक के कटी पतंग के पीछे दौड़ पड़ते. रोज़ हाथ पैरों में चोटें और खरोंचें लगी रहती. पतंग के शौक़ के चलते ऑंखों पर चश्मा भी लग गया. पर पतंग का शौक़ बरक़रार रहा. 

एक दिन स्कूल से छुट्टी होने पर दोनों दोस्त घर वापिस आ रहे थे कि 'वो काटा' सुनाई पड़ा. ऊपर देखा तो हवा में तैरती कटी पतंग दिखाई पड़ी. बस फिर क्या था दोनों लपके. जब पतंग हवा से आगे बढ़ी तो दोनों ने रफ़्तार बढ़ा दी. इस दौड़ में दूसरों से धक्का मुक्की भी चल रही थी. पतंग हवा का झोंका लगते ही ऊपर उठ गयी. बस्ते का भार अब पतंग और उनके बीच रुकावट बनता जा रहा था. पतंग को हाथ से जाता देख दोनों ने बस्ते वहीं फैंक दिए. मामला करो या मरो का रूप ले चुका था. लम्बी दौड़ और मशक्कत के बाद कटी पतंग हाथ लग गई. चेहरे पर पसीने के साथ साथ युद्ध-विजेता का भाव आ गया.

वापिस बस्ते उठाने आए तो दोनों बस्ते गायब ! बहुत खोजने पर भी नहीं मिले तो बग़ैर बस्ते के रोनी सूरत लेकर घर मे घुसे. घर में तो भूचाल आ गया. दोनों को झापड़ लगे ताड़-ताड़ और खूब डांट पड़ी.

बस्ते की तलाश मे २ - ३ टीमें इधर उधर दौड़ी. एक टीम ने सूचित किया की कॉपियां तो कबाड़ी को बिक गई हैं और किताबें बस्ते सहित पुरानी किताबों की दुकान वाले को किसी ने बेच दी हैं.

माँ पैसे लेकर भागी. वही बस्ते, किताबें और कॉपियां दुबारा खरीद कर लाई. घर आकर तलाशी शुरू हुई. कोने कोने में से पतंग, चर्खियां, सद्दी, मांझे को इकठ्ठा किया गया. सारा सामान घर के बाहर रख कर सबके सामने तहस नहस कर दिया गया.

उस दिन के बाद हमारे घर से पतंगबाज़ी चीन वापिस चली गई !

- गायत्री, नई दिल्ली. 

पतंग 

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