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Thursday 30 June 2016

पहाड़ी गाँव

पिछले दिनों लैंसडाउन, जिला पौड़ी गढ़वाल के नजदीक गाँव जिबल्खाल में जाने का मौका मिला जो दिल्ली से लगभग 260 किमी दूर है. लैंसडाउन तो हरा भरा और ठंडा है 1700 मीटर की उंचाई की वजह से. पर गाँव नीचे होने के कारण कम ठंडा और धूल भरा था. पिछली बार बारिश कम रही थी शायद इसलिए सूखे खेत और सूखी झाड़ियाँ ज्यादा मिली. दिमाग में गाँव की जो हरी भरी छवि लेकर गया था वह ज़रा फीकी पड़ गई. पर फिर भी एक अलग मज़ा है आबो-हवा में, यहाँ के ज़मीं-आसमां में, पौधों और चिड़ियों में. आइये फोटो के माध्यम से वहां के जीवन की एक झलक देखते हैं :

दावत ! आलू बैंगन की सब्जी, अरहर-उड़द की दाल और छे रोटियाँ. शहरी मानुस के लिए तो दो ही काफी थी. इस पर टिपण्णी हुई 'इत्गई' याने इतना ही ? कमरे में पीछे लगे चित्रों के अलावा दाएं बाएं दीवारों पर और भी चित्र थे जिनमें थे - भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस, महात्मा गाँधी और इंडिया गेट 

रास्ते में बरस्वार गांव का एक प्राइमरी स्कूल भी था. लड़के लड़कियां कैमरा देख कर मुस्कराने लगे. पर फिर भी थोड़ी झिझक थी बात करने में. उनको वादा किया था की ये सभी फोटो उन तक पहुँच जाएंगी क्यूंकि गांव का एक लड़का फेसबुक में है !  
दूर दूर से बच्चे पढ़ने आते हैं. कुछ बच्चों को आने जाने में आठ दस किमी तक की ट्रैकिंग करनी पड़ जाती है जो आसान नहीं है. दोपहर में खाना स्कूल में ही मिल जाता है जिससे हाजिरी बनी रहती है 

लड़के लड़कियां शारीरिक तौर पर चुस्त दुरुस्त हैं. लड़कों को बड़ा होकर फ़ौज, सरकारी नौकरी या फिर जंगलात की नौकरी में जाने की इच्छा ज्यादा है. लड़कियां ज्यादातर टीचर बनना चाहती हैं. उच्च शिक्षा क्या है, कहाँ है और कैसे हो पाएगी इस बारे में जानकारी ना के बराबर है  

खेलों में बच्चों को फुटबाल ज्यादा पसंद है हालांकि क्रिकेट भी जानते हैं. पर यहाँ एक छक्के की शॉट में बॉल कहाँ तक जाएगी ? अंदाज़ा नहीं लगा सकते और जब तक वापिस आएगी तब तक शाम हो जाएगी ! 

कच्चे रास्ते ज्यादा हैं और इस ओर अभी बहुत काम बाकी है. कुछ टावर लग रहे हैं जिससे मोबाइल की घुसपैठ बढ़ रही है. कहीं कहीं टीवी की डिश भी दिखाई दे जाती है. खेती में रूचि घट रही है जिसका एक कारण है ज्यादा मेहनत कम उपज. दूसरा कारण है बंदर, लंगूर, जंगली सूअर की बढ़ती जनसंख्या जो खाते कम हैं बरबाद ज्यादा करते हैं. सूअर जमीन खोद कर आलू वगैरा निकाल लेते हैं. इनको मारना भी मना है. इसके अलावा दो तीन महीने में तेंदुआ भी चक्कर लगा लेता है और एकाध बकरी या फिर कुत्ता गटक जाता है. जीने का संघर्ष सबके लिए कड़ा है

गांव का एक मकान. नीचे पशु, चारे और लकड़ियों का गोदाम है. ऊपर रसोई और कमरे हैं. रसोई में अभी भी लकड़ियाँ जलाते हैं. गैस का सिलिंडर पहुंचाने के 400 -500 रूपये अलग से भाड़ा लगता है. बिजली पहुँच गई है और पानी की पाइप लाइन भी आ गयी है. पर घरों में अभी शौचालय नहीं हैं. इसलिए सुबह लोटा लेकर जंगल की ओर प्रस्थान करें ! 

बरसाती नदियों पर छोटे छोटे चेक डैम की व्यवस्था नहीं है. पानी ऊपर से आया और नीचे बह गया बस कथा समाप्त. थोड़ी थोड़ी दूर पर छोटे ताल तलैय्या बनाकर पानी संजोया जा सकता है. पानी के प्रबंधन की सोच बनानी पड़ेगी  

बरस्वार का भोलेनाथ मंदिर. अंदर भगवान शंकर और पार्वती देवी बिराजमान हैं और बाहर मुंडेर पर हमारी देवी   
लैंसडाउन की ठंडक का राज़ - 1700 मीटर की उंचाई, चीड़ के जंगल और हरियाली 



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