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Tuesday 29 September 2015

शक

भारत के उत्तर-पूर्व में मणिपुर राज्य है. वहां के एक छोटे से गाँव में गबरू जवान लड़का था खाम्बा. उसे बारिश के कारण नींद नहीं आ रही थी. रात भर मेघा गरजते रहे और बरसते रहे. तड़के बारिश थम गई और लग रहा था कि सूरज भी निकल आएगा. खाम्बा ने खटिया छोड़ी और दरवज्जे के बाहर आकर मौसम का जायजा लिया. आसमान पर नजर डाली बादल घट गए थे. फिर आस पास के पहाड़ियों पर छितरे सीढ़ीनुमा खेतों को देखा. पहाड़ियाँ धुल गई थीं और खेतों में भी जगह जगह पानी भरा हुआ नज़र आ रहा था. उसने अम्मा को आवाज़ दी
- अम्मा खेत पे जाऊँगा. रोटी टिक्कड़ कर ले.
अम्मा को पता था कि खेत पर जाने का मतलब है कि अब खाम्बा शाम को ही वापिस आ पाएगा. इसलिए खाने की पोटली तैयार करने लगी. दो प्याज, चार मोटी-मोटी मंडुए की रोटियां और बैंगन की सब्जी लपेट कर बाँध दी. हरी मिर्च तो खेत में से ही तोड़ लेगा. पानी का डोल, छतरी, खुरपा और फावड़ा निकाल कर दरवज्जे के बाहर रख दिया.

खाम्बा पूरी तरह से लैस होकर पहाड़ी पगडण्डी से नीचे उतरने लगा. तीन छोटे छोटे खेत अलग अलग थे - एक 50 मीटर नीचे, दूसरा उसके और नीचे लगभग 100 मीटर दूर और तीसरा थोड़ी सा दाहिनी ओर 200 मीटर नीचे. वहां पहुँचने के लिए कई आड़ी तिरछी पगडंडिया नीच की ओर जा रहीं थीं. कई जगह पर दूसरों के खेतों की मेंढ़ पर से भी गुजरना पड़ता था. आज फिसलन भी ज्यादा थी इसलिए हौले हौले उतर रहा था. तभी कनखियों से देखा तो पास वाले गाँव की थोएबी भी अपने खेतों की तरफ जा रही थी. वो मुस्कराया 'चलो आज का दिन बढ़िया गुजरेगा, शादी के लिए पटाते हैं '. जोर से आवाज़ लगा कर बोला,
- ओये थोएबी ज्यादा ना उछल, गिरेगी !
- चुप बे! कहते हुए थोएबी ने अपना हंसिया हवा में घुमा दिया.
खाम्बा को गुदगुदी हुई और हंसने लगा. इस पर थोएबा ने दुबारा हंसिया घुमा कर अपनी गर्दन पर रख लिया दिखाने के लिए कि मार दूंगी. इस बार खाम्बा खिलखिला कर और जोर से हंसा और जल्दी से जमीन पर लेट कर छटपटाने की एक्टिंग करने लगा. इस एक्टिंग पर थोएबी को भी हंसी आ गई और खेत में से छलांगे  लगाती हुई आई और खाम्बा की छाती पर चढ़ बैठी. हंसिया उसकी गर्दन पर रख कर बोली
- खबरदार !

दोनों खिलखिला कर उठे और हंसी मजाक करते हुए अपने अपने खेतों की ओर रवाना हो गए. खाम्बा गुनगुनाता रहा और फावड़ा भी चलाता रहा. हसीन सपने भी देखता रहा कि थोएबी उसकी हो गयी है. खाने के समय उसने थोएबी को बुला लिया और दोनों ने साथ साथ खाना खाया. उसके रोकने के बावजूद थोएबी रुकी नहीं और घर चली गई. उसे लगता था की बस सामने बैठी रहे कहीं ना जाए. काम करूं तो भी सामने हो, घर के अंदर हूँ तो भी वो दिखती रहे और घर के बाहर रहूँ तो भी थोएबी साथ हो.

दोनों परिवारों की सहमती हो गई और थोएबी दुल्हन बन कर खाम्बा के घर आ गई. खाम्बा तो सातवें आसमान में उड़ने लगा. थोएबी को एक सेकंड के लिए छोड़ने के लिए तैयार नहीं था. शुरू के दिन तो हवा हो गए. दोनों सपनों की दुनिया में थे पर तीसरे हफ्ते थोएबी ने माँ से मिलने की इच्छा जाहिर की. पर खाम्बा को यह भी मंज़ूर नहीं था की थोएबी उसे छोड़ कर अपनी माँ के घर मिलने चली जाए.
- अरे अब तेरा वहां क्या काम ? बस तू मेरी है और मेरे पास ही रहेगी तू.

बड़ी मिन्नत के बाद केवल एक दिन के लिए उसे माँ के पास छोड़ कर आया. पर माँ बेटी को तो बहुत सी बातें करनी होती हैं इसलिए एक दिन में कहाँ काम चलता है. उसे मायके में चार दिन हो गए. दो दिन तो खाम्बा ने बर्दाश्त कर लिये. तीसरे दिन उसे गुस्सा और खीझ होने लगी. चौथे दिन उसे रह रह कर शक भी होने लगा की कुछ और चक्कर तो नहीं है. कोई इसका पुराना आशिक तो नहीं है ? आने दो ख़बर लेता हूँ इसकी. एक ही झापड़ में अक्कल ठिकाने आ जायेगी. चौथी रात उसकी नींद भी उचाट हो गई. पर पांचवे दिन थोएबी खुद ही चल कर आ गई. खाम्बा का सिर कई तरह के विचारों से गडमड हो रहा था. उस पर गरजने और झापड़ मारने के लिए तैयार था पर जैसे ही थोएबी उसके नजदीक आई सारा गुस्सा भूल गया. अगले दिन थोएबी से बहुत पूछताछ की वो क्यूँ चार दिन लगा कर आई ? उसे फटकार भी लगा दी.

पर अगले महीने ही थोएबी की माँ का फिर बुलावा आ गया. बड़ी मुश्किल से खाम्बा एक दिन के लिए भेजने को तैयार हुआ. अब भगवान सब का भला करे जी एक दिन में तो मायके जाकर बात नहीं बनती. थोएबी के मना करने के बावजूद भी उसे मायके में फिर रोक लिया गया. तीसरे दिन भी जब वापिस ना आई तो खाम्बा का पारा ऊपर चढ़ने लगा. उसका शक भी बढ़ने लगा. इसका जरूर कोई आशिक होगा उस गाँव में.

इस बार जब वो वापस आई तो थोएबी का स्वागत डांट फटकार से हुआ. धमकी भी दे दी और इशारा भी कर दिया की अगर कोई आशिक है तो छोड़ दे उसे. ये सब थोएबी को अच्छा नहीं लग रहा था क्यूंकि ना तो वो जान बूझ कर रूकती थी ना ही कोई उसका आशिक था. पर परिवार में दुःख सुख चलता रहता है जिस के कारण थोएबी  को फिर मायके जाना पड़ा. तीसरे दिन भी नहीं लौटी तो खाम्बा का माथा शक से भिन्नाने लगा. उसने सोचा की कल तो कुछ करना ही होगा आशिक का पता लगाना होगा. भेस बदल कर जाता हूँ और अगर बिना पहचाने मेरे संग चल पड़ी तो समझ लो की ये दुष्टा है.

अगले दिन शाम को बाबा का वेश बनाया. डंडा लिया और कम्बल ले के सिर और बदन ढक लिया. छुप छुप के खेतों में से निकलते हुए थोएबा के गाँव की ओर चल दिया. घर के नजदीक पहुँच कर अँधेरा होने का इंतज़ार करने लगा. थोएबी की झोंपड़ी के पास ही बाड़ा था जिसमें दो गाय बंधी हुईं थीं. उसकी माँ घास का एक गठ्ठर सर पर रख कर लाई और वहां पटक दिया. थोएबी को आवाज़ लगाई और बोली की कुछ घास काट कर गाय को डाल दे और कुछ अलग करके सुबह के लिए रख दे. माँ अंदर चली गई और थोएबी ने हंसिया उठा कर काम करना शुरू कर दिया.
खाम्बा ने देखा अब थोएबी अकेली है तो अच्छी तरह से मुंह ढक लिया और उसकी ओर बढ़ा.
- आजा मेरी जान.
- कौन है रे भाग यहाँ से.
- अरे तेरा पुराना आशिक हूँ आजा .
यह कह कर खाम्बा उस पर झपट पड़ा. थोएबी ने भी तुरंत ही हंसिये से पलटवार करना शुरू कर दिया. हड़बड़ी में खाम्बा गिरा. कम्बल कहीं और डंडा कहीं जा गिरा. जब तक खाम्बा संभलता तब तक हंसिये का एक भरपूर वार उसकी गर्दन पर पड़ा और खाम्बा वहीँ ढेर हो गया.  

त्रासदी खाम्बा और थोएबी की





Friday 25 September 2015

गाँव की सड़क पर

पिछले दिनों देहरादून से दिल्ली वापिस आते हुए रूड़की बाईपास से शार्टकट मार दिया. पुन्हाना से झबरेड़ा होते हुए गुरुकुल नारसन और दिल्ली रोड याने NH - 58 पर जा पहुंचे. सुबह लगभग सात बजे का समय था और हलका सा कोहरा था. सड़क के दोनों ओर ऊँचे ऊँचे युकलिपटस के पेड़, हरे भरे खेत और पोपलर के पेड़ों की कतारें सुंदर लग रहीं थीं. पर हिन्दुस्तानी सड़क बिना ब्रेकर और गड्ढों के नहीं होती और इस पर भी खूब थे. सभी फोटो चलती गाड़ी में से iPad पर ली गई हैं. 

सुहाना सफ़र 
पोपलर पेड़ों के कटे हुए तने फैक्ट्री की ओर

किसान और बैल का काम 24X7 चालू रहता है 

चलो काम पर 
गाड़ी धीरे हांकनी पड़ती है गाँव की सड़क पर. फावड़े वाला भाई बिना इशारा दिए साइकिल से कूद गया 

ग्रामीण यातायात का टिकाऊ और सस्ता साधन 

चलो काम पर 



Thursday 24 September 2015

बाघ और भूतनी

शायद आपने झिबल खाल गाँव का नाम सुना हो, नहीं ? मैंने भी नहीं सुना था. ये तो शादी के बाद पता लगा के ये गाँव मंगोलिया में नहीं बल्कि तहसील लैंसडाउन में है. और ये तहसील जिला पौड़ी गढ़वाल में है. और ये जिला उत्तराखंड में है. उत्तराखंड तो खैर आप जानते ही हैं की भारत में है.

गाँव जाने का रास्ता सीधा है बस आप कोटद्वार पहुंच जाएं. वहां आप को जीप वालों की आवाज़ सुनाई पड़ेगी "लैंसडौन लैंसडौन". मात्र 60-70 मिनट की हिचकोलेदार यात्रा के बाद जीप ऊपर भरोसा खाल पहुंचा देगी. वहां जीप वाले को पैसे देकर जीप से बाहर छलांग लगा कर थोड़ी एक्सरसाइज कर लें क्यूंकि गाँव पहुँचने के लिए 30-40 मिनट पैदल उतरना पड़ेगा.

शुरुआत में चीड़ का घना जंगल आता है. चीड़ के पेड़ ऊँचे और मोटे तने वाले होते है, ये सीधे सीधे खड़े रहते हैं और ऊपर ऊपर जाने की कोशिश में रहते हैं. शायद उनकी इच्छा होती है कि उड़ते बादलों को पकड़ लें. इनकी पत्तियां लम्बी लम्बी सुइयों जैसे होती हैं. इनमें से जब हवा बहती है तो हलकी सी सरसराहट की आवाज़ आती है. अब चूँकि जंगल है तो कई तरह के पेड़ पौधे,पक्षी, जंगली बेर और फल भी होते हैं. साथ ही जंगली जानवर भी दिख सकते हैं.

पहली बार गाँव पहुँच कर आसपास का नज़ारा देखा कि 5-7 मकान ही थे जो दूर दूर पहाड़ी ढलानों पर छितरे हुए थे. ढलानों पर सीढ़ीनुमा खेतों के साथ साथ आम, अमरुद, पपीते, केले वगैरा के हरेभरे बगीचे थे. ढलान से नीच की ओर घाटी में नदी नज़र आ रही थी. घाटी के उस पार भी ऊँची पहाड़ियां थी जिन पर सीढ़ीनुमा खेत और कुछ मकान थे. छोटे छोटे कद की गाय खूंटों से बंधी हुईं थीं. इधर उधर बकरियां चर रहीं थी. भोटिया नस्ल के तीन कुत्ते आसपास मंडराने लगे और पता लगाने लगे कि दिल्ली की खुशबू कैसी है. स्वागत में खटिया बिछा दी गई. चाय की चुस्की लेते लेते बच्चे, बूढ़े और जवान नया पंछी देखने के लिए इकठ्ठे हो गए.

- येल के जनण जंगलातम भी लोग बस्याँ छिन !
(ये नहीं जानते कि कैसे कैसे जंगलों में लोग बसे हुए हैं  ).

- यख अपड़ा पहाड़ी त आंदाई नी छिन दिल्लीवल दमादल आणक हिम्मत कार !
(यहाँ अपने पहाड़ी तो आते नहीं पर दिल्ली वाले दमाद ने आने की हिम्मत की  ).

पहाड़ में रात धीरे धीरे ना आकर एकदम छा जाती है. गाँव में उस ऐतिहासिक काल में लाइट भी नहीं थी इसलिए कैंडल लाइट डिनर सात बजे से पहले ही हो गया. मकान के ऊपर वाले भाग में दो कमरे, किचन और एक बड़ी बालकनी थी जिसमें खटिया बिछा दी गई और बिस्तर लग गए. हलकी ठंडक के साथ सन्नाटा भी पसर गया. काली अँधेरी रात में जानवरों तक की आवाज़ आनी बंद हो गई. पता चला कि गाय, बकरियां और कुत्ते बाड़े में बंद कर के दरवाज़े पर सांकल लगा दिया जाता है ताकि कोई बाघ ना ले जाए ! गाँव में तो तेंदुआ, चीता या बाघ सभी बाघ ही कहलाते हैं.

खैर थकावट थी, खुशनुमा ठंडक थी और सन्नाटा था इसलिए पता ही नहीं चला कब नींद आ गयी. अचानक शोर मच गया 'बाघ बाघ'. हड़बड़ा कर बिस्तर से उठा और पूछा क्या हुआ, क्या हुआ ?
- अरे कुछ नहीं. सामने वाले गाँव में बाघ आ गया है बकरी वकरी ले गया होगा. आप सो जाओ.
- कहाँ सो जाऊं? कैसे सो जाऊं ? बाघ यहाँ आ गया तो? OMG!
- अब नहीं आएगा. भगा तो दिया उसे.
- OMG! कमबख्त यहीं घूम रहा होगा. हनुमान चालीसा भी तो याद नहीं है !

सामने वाली पहाड़ी पर कुछ मशालें और टोर्चें चमक रहीं थी. घुप अँधेरे में लोग तो नहीं दिख रहे थे पर मशालों से पता लग रहा था की कुछ दौड़ भाग हो रही है. बाघ बाघ चिल्लाने और कनस्तर पीटने की आवाज़ घाटी में गूँज रही थी. बस पांच मिनट में शांति हो गई. एक एक कर के मशालें बुझ गईं और एक बार फिर गहरा सन्नाटा छा गया. पर सन्नाटे से दिल में घबराहट बढ़ गई. अमरुद का पेड़ हलके से हिला तो लगा - आ गया. सूखे पत्ते हवा से सरसराए तो लगा - आ गया. किसी ने गला खंखारा तो लगा - आ गया. बाप रे बाप! मैनें तो बिस्तर गोल किया, खटिया उठाई और कमरे के अंदर.

नींद कहाँ आनी थी साहब ? सुबह के 4.30 बजे हल्का सा उजाला हुआ तो जान में जान आई. थोड़ी देर में बच्चे, बूढ़े और जवान अपने दैनिक कार्यक्रम में ऐसे लग गए जैसे की कुछ हुआ ही नहीं था. पता लगा की तेंदुए ने एक बकरी दबोच ली थी. इससे पहले कि वो बकरी को ले भागता लोगों ने शोर मचा दिया वो बकरी छोड़ कर भाग गया. इसलिए कुछ लोगों की बिरयानी की दावत होने वाली थी. नाश्ते के समय बाघ और बाघ के डर से खटिया कमरे में ले जाने पर चर्चा हुई. खिलखिलाती हंसी और कुटिल मुस्कान के साथ कुछ टिप्पणियां हुईं :

- ये बुबा राती दामादजी डैर ज्ञा भीतर लुक ज्ञा !
(रे बाबा रात को दामाद जी डर गए और भीतर छुप गए ! )

- छुछा दी बाघ थै दिल्लिक गंध लग ज्ञा !
(अच्छा तो बाघ को दिल्ली वालों की गंध आ गई ? )

- राती भैर बाघल रैण और भितर भूतनिल भी आण तब कख छुपला?
(अगर रात को बाहर बाघ और भीतर भूतनी आ गई तो कहाँ छुपोगे ? )


म्यार गों म्यार देस 



Monday 21 September 2015

गेलुग बौद्ध विहार, देहरादून

देहरादून की भीड़ भाड़ से थोडा सा दूर एक शांत जगह है क्लेमेंट टाउन जहाँ काफी संख्या में तिब्बती शरणार्थी रहते हैं. यहाँ एक बौद्ध मठ है जहाँ लगभग तीन सौ बच्चे पढ़ते हैं. इनके तिब्बती शैली के भवन, स्तूप और गोम्पा बड़े ही सुंदर लगते हैं. यहाँ धार्मिक शिक्षा, पूजा के मंदिर और भिक्षुओं के रहने के स्थान हैं. यह बौद्ध विहार तिब्बत के गेलुग धार्मिक मंडल (सेक्ट) द्वारा चलाया जाता है.
प्रस्तुत हैं कुछ फोटो:  

प्रार्थना करने वाले पहिये या Prayer Wheels जिन्हें घड़ी की दिशा में घुमाया जाता है 

देवी तारा या कुर्कुला धन सम्पति की देवी हैं याने लक्ष्मी 

स्तूप या चैत्य 

गोम्पा 

गेलुग-पा बौद्ध मठ का मुख्य द्वार 


Saturday 19 September 2015

Rural Road - Roorkee bypass, Uttarakhand



On our way to Delhi from Dehradun, we bypassed Roorkee & took a rural road - Puhana - Jhabreda - Gurukul Narsen. From Narsen onwards it was NH 58. 
In the morning it was misty. The road passed through lush green fields & tall eucalyptus and poplar trees. 
60 sec video has been made on iPad.


वाह पराँठा !

जिस दिन सुबह नाश्ते में पराँठा न मिले तो यूँ लगता है की किसी चीज़ की कमी रह गई है याने संतुष्टि नहीं होती । कुछ ऐसा लगता है की कोई रिक्त स्थान बिना भरे ही रह गया है । अब इस परांठे के बदलें में चाहे दूध-कोर्नफ्लेक हो या बटर-टोस्ट हो सब फ़ेल हैं मेरी नज़र में । मैं तो कहता हूँ की भई अपनी देसी खाने का जवाब नहीं ।

अपना फ़ंडा सीधा है -  'देसी खाओ और मौसमी खाओ' याने - eat local eat seasonal. अब अगर आप फिरंगियों के देश में हो तो फिर वहीं के नाश्ते का मज़ा लो फिर परांठा न ढूँढो मजा नहीं आएगा. 

अपने यहाँ मौसम का भी मिज़ाज बदलता रहता है गरमी, बरसात, सर्दी और वसंत । वैसे ही पराँठे में भी बदलाव आ जाता है क्यूँकि पराँठा रूप बदलने में और स्वाद बदलने में बड़ा ही सक्षम है । 

अब ये तो नहीं पता लग पाया की पराँठे का अविष्कार किसने किया  परन्तु जिसने भी किया उसे कोई बड़ा सा पुरस्कार ज़रूर मिला होगा । और अगर नहीं मिला तो इतिहासकार खोज करें तो उस बंदे को अब भी पुरस्कार दिया जा सकता है या फिर उसकी कोई मूर्ति स्थापित की जा सकती है । 

वैसे तो चाँदनी चौक दिल्ली में एक जगह है जिसका नाम है गली पराँठे वाली शायद पराँठे का जन्म वहीं हुआ हो । 

विकीपीडिया के अनुसार पराँठा शब्द का मूल शायद 'परात + आटा' रहा होगा । 

पराँठा अब तो लगभग सारे देश में ही फैल गया है । जहाँ चावल-भोजी ज़्यादा हैं वहाँ भी पराँठे की घुसपैठ हो चुकी है । अलग अलग जगह नाम जरूर बदलें हुए हैं जैसे की परांवठा, पराटा, परोटा, पोरोटा, पराठा, प्रोंठा । मॉरीशस में यह फराटा, बर्मा में पलाटा कहलाता है ।

पराँठे कई तरह के हो सकते हैं जैसे की सादा, लच्छेदार याने की कई परतों वाला, तवे का या तंदूरी । सादे हों या भरवाँ पराँठों के साथ सब्ज़ी, दही, मक्खन, सलाद, अचार, चटनी, छाछ, लस्सी, काफ़ी, दूध या चाय सभी का भी आनन्द लिया जा सकता है ।

और देखिये पराँठा वेज भी है और नोनवेज भी । अंडा-पराँठा और कीमा-पराँठा भी ख़ूब चल निकले हैं जनाब । 

अब सर्द मौसम को ही लो । गरमा गरम भरवाँ पराँठों की बहार आ जाती है । आलू-प्याज़, गोभी, मूली, पनीर, बेसन-प्याज़, पुदीने के पराँठों का कोई जवाब नहीं है । और इसके साथ हो दही, अचार और चाय तो बस वाह ! 
और भी कई तरह के स्वादों में बन सकते हैं पराँठे : 

- दाल-भरा पराँठा,
- करेला-भरा पराँठा,
- गुड़-घी-भरा पराँठा,
- बथुआ-भरा पराँठा,
- मेथी-भरा पराँठा,
- ज़ीरा / अजवाइन वाला पराँठा,
- प्याज़-लहसुन भरा परांठा वग़ैरह । 

और अब आप बताओ आपको कौन सा पराँठा पसंद है ?





गुरूद्वारा पांवटा साहिब - ਪਾਂਉਟਾ ਸਾਹਿਬ

ऐतिहासिक पांवटा साहिब गुरुद्वारा यमुना नदी के किनारे जिला सिरमौर, हिमाचल प्रदेश में स्थित है. देहरादून से पांवटा साहिब 45 किमी की दूरी पर है और चंडीगढ़ से करीब 130 किमी. जाने के लिए बसें और टैक्सी दोनों ओर से उपलब्ध हैं. देहरादून से जाने वाली सड़क अच्छी है पर सिंगल हैं और ट्रैफिक ज्यादा है. दून घाटी के अंतिम छोर पर पांवटा साहिब है. दून घाटी में बहती यमुना नदी उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के बीच की सीमा रेखा है. गुरुद्वारा साहिब के साथ बहती यमुना नदी और आस पास पहाड़ियाँ सुंदर लगती है. पर नदी का पूरा पाट पथरीला होने के कारण दोपहर में तेज़ गर्मी होती है. सुबह पहुंचना आरामदेह रहेगा.  

यह शहर दसवें सिख गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज ( जन्म 22 दिसम्बर 1666 - निर्वाण 07 अक्टूबर 1708) का बसाया हुआ है. गुरु महाराज अप्रैल 1685 में यहाँ पधारे थे. कहते हैं की घोड़े से उतर कर उन्होंने अपने पांव यहाँ टिका दिए और इसलिए जगह का नाम पांवटा साहिब पड़ गया. एक दूसरी कहावत के अनुसार उनके पांव में एक जेवर था पांवटा जो यमुना में नहाते हुए खो गया इसलिए इस जगह का नाम पांवटा पड़ गया. 
गुरु महाराज यहाँ चार साल से ज्यादा रहे और यहीं पर उन्होंने कई भजन कीर्तन और 'दसम ग्रन्थ' की शुरुआत की जिसे आनंदपुर साहिब में पूरा किया. यहीं उनके पुत्र साहिबज़ादा बाबा अजित सिंह जी का जन्म हुआ था. यहाँ गुरु महाराज ने घुड़सवारी, तैराकी और हथियारों के इस्तेमाल में दक्षता हासिल की और इस तरह से जीवन भर 'संत-सिपाही' रहे.

गुरुद्वारा साहिब परिसर तीन एकड़ में फैला हुआ है. परिसर में दस्तार अस्थान है जिसमें पगड़ी बाँधने का कम्पटीशन कराया जाता था. इसके पास ही कवि दरबार अस्थान है जहाँ शबद कीर्तन और कवि गोष्ठियां होती थीं. और तालाब अस्थान है जहां गुरु महाराज वेतन बांटते थे. एक छोटा म्यूजियम भी है जहाँ गुरु महाराज के हथियार और कलम रखे हुए हैं. यहाँ लगभग 2000 से ज्यादा लोग रोज़ आते हैं. साथ ही एक हॉल में लंगर की सुंदर व्यवस्था है. जब भी जाएं प्रसाद स्वरुप भोजन का आनंद जरूर लें. 
प्रस्तुत हैं कुछ फोटो:  

दस्तार अस्थान 

यमुना का किनारा 

गुरूद्वारे के आँगन में

गुरु का लंगर 

गुरूद्वारे का साइड व्यू 

मुख्य द्वार 
यमुना पुल से गुरूद्वारे का एक दृश्य 



Thursday 17 September 2015

हेमिस मठ, लद्दाख की मूर्तियाँ

लेह से लगभग 45 किमी दूर एक क़स्बा है जिसका नाम है हेमिस. यहाँ एक बौध मठ है जिसे हेमिस मठ या हेमिस गोम्पा या Hemis Monastery कहते हैं. यह हेमिस मठ लगभग 12000 फुट की ऊंचाई पर स्थित है और सिन्धु नदी के पश्चिमी किनारे पर है. 

कहा जाता है की यह गोम्पा ग्यारवीं सदी से भी पहले का है और इसका जीर्णोधार 1672 में लद्दाखी राजा सेन्ग्गे नामग्याल द्वारा कराया गया था. यह गोम्पा महायान बौध समुदाय के द्रूक्पा शाखा से सम्बन्ध रखता है. दुसरे मठों के मुकाबले यह सबसे बड़ा और सबसे सम्पन्न मठ है.

प्रस्तुत हैं गोम्पा में रखी हुई कुछ मूर्तियों के चित्र मुकुल वर्धन के सौजन्य से:




हेमिस गोम्पा से सम्बंधित कुछ और चित्र निम्नलिखित ब्लोग्स में देखे जा सकते हैं.

http://jogharshwardhan.blogspot.com/2015/07/hemis-monastery_6.html  

http://jogharshwardhan.blogspot.com/2015/07/hemis-monastery-laddakh.html



Monday 7 September 2015

तेरा गाँव बड़ा प्यारा

अब तो 35 वीं साल गिरह आने वाली है. पर बातों में से बात निकली तो पहली साल गिरह की याद आ गई. गिरह बाँधने के बाद ऐसा भी सवाल उठा था - ओये तैनू पंजाबी कुड़ी नईं लब्बी ? मिस बी के परिवार में भी सवाल उठा था - बुबा गढ़ल मा तिथे कुई ब्योला नि मिल.

पर पहले अपना परिचय तो दे दिया जाए - मैं लड़का पंजाबी खत्री और मिस बी लड़की उत्तराखंडी ब्राह्मण. दोनों एक ही बैंक में काम करते थे. दोनों ही शादी ना करने का विचार रखते थे. इसलिए आपसी अंडरस्टैंडिंग जल्दी बन गई थी. अब आप दो और दो चार कर लो.

अब जब कि दोनों एक ही गिरह में गिरफ्तार हो गए थे तो मिस बी के गाँव भी तो जाना था. गाँव का पता - झिबल खाल, तहसील लैंसडाउन और जिला पौड़ी गढ़वाल. तो तैयारी शुरू हो गई. पिताजी ने सलाह दी की पुरानी वाली साइकिल ले जाओ क्यूंकि बस स्टैंड में दो तीन दिन खड़ी भी रही तो कोई हर्ज नहीं पर रसीद संभल कर रखना. मम्मी ने सलाह दी की ज्यादा जेवर न पहन कर जाओ आजकल का जमाना ठीक नहीं है. दादी ने सलाह दी की पूड़ियाँ और साथ में अचार रख लो. कई बार रस्ते में भूख लग जाती है और बस वाले बस रोकते नहीं हैं.

पुरानी साइकिल पर नई दुल्हन को बिठा कर निकल पड़े यू पी रोडवेज के बस स्टैंड की तरफ. नवम्बर के ठन्डे दिन थे पर फिर भी चार किमी की खटारा साइकिल खींचने में पसीने निकल गए. उस पर तुर्रा ये कि पीछे बैठी बैठी बोले जा रही थी 'और तेज़ और तेज़' ! बस स्टैंड पहुँच कर साइकिल जमा की और रसीद संभाली. कोटद्वार की बस में बैठ लिए.
कोटद्वार पहुंचते तक दोपहर हो गई. मिस बी के चाचा का घर पास ही था तो नमस्ते करनी जरूरी थी. मुलाकात हुई, चाय नाश्ता हुआ. बातों बातों में चाची ने मिस बी से पूछा - अरे तुझे इस दाढ़ी वाले पंजाबी में क्या नज़र आया ?

फिर टैक्सी स्टैंड की ओर बढे जहाँ जीप वाले आवाज़ लगा रहे थे - 'लैंसडोन लैंसडोन'. दरअसल जीप नुमा टैक्सी में बैठने का न्योता दे रहे थे. एक जीप में 6 की जगह 8-10 बिठा लेते हैं. मिस बी ने समझाया कि ऐसी टैक्सी में तभी बैठना चाहिए जब आपका मुंह सामने की ओर हो. अगर साइड में या पीछे की ओर मुंह कर के बैठेंगे तो चक्कर आ सकते हैं. और दूसरी लेडीज सवारी को मत देखना ज्यादातर ये उलटी कर देतीं हैं.
- ओह !
जीप की सवा घंटे की हिचकोले दार, घुमाव दार और शोर मचाती हुई पहाड़ी यात्रा भरोसा खाल में जाकर खत्म हुई. उतर कर देखा तो आस पास पहाड़ और जंगल के अलावा कुछ भी नहीं था.
- कहाँ है तुम्हारा गाँव?
- बस वो नीचे है. इस चीड़ के जंगल में से निकल चलते हैं.
जंगल छायादार, ठंडा और हरा भरा था. ऊपर नीला साफ़ आसमान, नीचे बड़े बड़े और ऊँचे चीड़ के पेड़ और पक्षियों के आवाजें. हवा की सुरसुराहट और जंगल की एक खास खुशबु भी आ रही थी. पैसा वसूल. जंगल की पगडंडी नीचे की ओर जाते जाते ख़त्म हो गई. पथरीली चट्टानें शुरू हो गईं. तेज़ धूप में चट्टानें तप रहीं थी. एक बड़ी चट्टान तो ऐसी थी कि उस पर हाथ रख कर ही उतरा जा  सकता था अच्छी सिकाई हो गई. मुझे लगता था कि चढ़ाई से उतरना बहुत आसान है पर उफ़.
- कहाँ है तुम्हारा गाँव?
- बस वो नीचे है.
दस मिनट तक नीचे उतरने के बाद 5-7 घर नज़र आये.
- ये है तुम्हारा गाँव?
- वो नीचे है. ये तो अमखेत है.
और दस मिनट पथरीली उतराई के बाद एक गाँव बांये हाथ पर नज़र आया.
- ये है तुम्हारा गाँव?
- वो नीचे है. ये तो गुन्याल की छाल है.
आखिर गाँव आ ही गया. पैरों के पंजे, पिंडलियाँ, घुटने और जांघों की मसल बुरी तरह दर्द कर रहीं थीं. पूरा शरीर पसीने पसीने हो गया था. चरपाई पर धम्म से बैठ गया और दो गिलास पहाड़ी पानी पिया तो कुछ चैन आया. कुछ ही मिनटों में गाँव के सारे बच्चे और बूढ़े चरपाई के इर्द गिर्द इकठ्ठे हो गए. सभी को मिस बी ने  ने गुड़ चने बांटे. कई बूढ़ी महिलाओं ने सर पर खुरदुरे हाथ फेर कर आशीर्वाद दिया
- राजी कुछल छो ? बनण्या रओ ! बनण्या रओ !
बच्चों ने बड़े कोतूहल से देखा नए रिश्तेदार को हाथ लगा लगा कर देखा. 
एक बुज़ुर्ग फौजी भी आ पहुंचे.
- जय हिन्द साब. पहली बार आये साब? सड़क नहीं है ना साब. थोड़ा थकावट हो जाता है साब. अभी दूर हो जाएगा.
यह कह कर फौजी ने मेरा गिलास उठाया और रम का बड़ा पेग बना दिया. दोनों ने चियर्स किया. थकावट से राहत मिली.

वो नीचे है मेरा गाँव 


  

Saturday 5 September 2015

मेरा साहब तेरा साहब

तेजबीर सिंह उर्फ़ तेजू ड्राईवर और रमेश महतो ड्राईवर चाय की चुस्कियां लेते लेते बतिया रहे थे. तेजू हमारे रीजनल मेनेजर गोयल साब का ड्राईवर हैऔर महतो हेड ऑफिस दिल्ली के बड़े साब गुप्ता जी की गाड़ी चलाता है. बड़े साब आज झुमरी तलैय्या रीजन के प्रबंधकों को भाषण देने आये हैं. गुप्ता जी तनख्वाह बढ़ाने की बात तो नहीं करेंगे पर बिज़नस बढ़ाने पर बहुत जोर देंगे. खैर अपन तो ड्राईवर तेजू और महतो की बात कर रहे थे.

आम तौर पर यही होता है की तू भी ड्राईवर मैं भी ड्राईवर इसलिए हमारी दोस्ती भी बराबर की. पर यहाँ तो तेजू छोटे साब का ड्राईवर है और महतो बड़े साब का तो बराबरी की दोस्ती कैसे चलेगी. महतो छोटे साब के ड्राईवर को हिकारत से देखता है 'पिछाड़ी हो जा छोटू'. पर तेजू भी कम नहीं है 'म्हारे ते बड़े बोल न बोलियो'. वैसे भी दो ड्राईवर मिलते हैं तो अपनी बात कम और साहब मेमसाब लोगों की बात ज्यादा करते हैं क्यूँ?

महतो ने खैनी की पिचकारी फेंकी.
- भइय्या हमारे साब तो टूरिंग बहुत करते हैं इसलिए जो है ओभर टाइम का मजा है. खाना पीना भी फिरी हो जाता है तनिक रुपिया बचता है.
- म्हारा साब तो सुसरा कहीं न जावे झुमरी तलैय्या छोड़ के. म्हारा तो ओवर टाइम न बणता भाई.
- हमें तो भइय्या साब का टूरिंग का इंतजाम भी तो करना पड़ता है. अटैची हम खुदै तैयार करते हैं. पैंट कमीच से लेकर कच्छा बनियन और बुरुश तक सब लगा के सेट कर देते हैं.
- हैं? ए महतो तू साब की लुगाई है के?
- अरे मजाक न करो भइय्या. मेमसाब नहीं ना करती हैं सब तैयारी हमी करते हैं.
- बोतल बातल भी तो मिलती होगी महतो ?
- ना तो हम पीते ना साब फिर कहाँ से बोतल मिलेगी भइय्या ?
- म्हारी ये मौज तो है महतो. शाम को साब को तो चहिये ही चहिये. साब के साथ अपणा भी काम चल जाता है. पर मेमसाब नराज हो जाती है. पिछले मंगल एकादशी भी थी पर साब तो महफ़िल में बैठ गए. रात 11 बजे घर पहुंचे तो मेमसाब ने गेट पे ही साब की क्लास लगा दी
- ना दिन देखते हो ना वार बस पीनी जरूर है. बेवड़े बन गए हो बेवड़े.
साथ में म्हारे को भी ऐसी डांट मारी दी कि बस म्हारा भी धुआं काढ दिया. पर के करें यो बोतल चीज भी तो ऐसी है की सुसरी पीछा न छोडे !
- ये सब पीना पिलाना हमारे यहाँ नहीं ना चलता है. हमारी मेमसाब तो मंदिर बहुत जाती हैं. कोई बताएगा के फलाने गाँव फलाने शहर में मंदिर है तुरंतै गाड़ी के लिए आवाज लगेगी. पिछले सन्डे गए थे बड़े शिवालय. पहुंच के मालुम हुआ की साहब चढ़ावे का रूपया तो लाये नहीं भूल गए. मेमसाब नाराज हो गईं. अब मेमसाब तो मंदिर में बैठी रहीं और साहब मंदिर से बाहर आये. मोबाइल तो गाड़ी में ही छोड़ गए थे. नंबर लगाए, बात किये और बोले
- जाओ महतो जरा फलां फैक्ट्री में जल्दी जाओ और जैन साहब से मेरी नमस्ते कहना.
हम तुरंतै गए जैन साब की फैक्ट्री में और लिफाफा ला कर दे दिए.
- महतो कितने थे लिफाफे में ?
- अरे हमसे क्या पूछते हैं? हम थोड़े ही खोले थे. मोटा लिफाफा था बस.

- चलो लंच कर लो. साहब लोग खा चुके.

खाना तैयार है 

हेमिस मठ ( Hemis Monastery ) लद्दाख

लेह से लगभग 45 किमी दूर एक क़स्बा है हेमिस। यहाँ एक बौध मठ है जिसे हेमिस गोम्पा या Hemis Monastery कहते हैं। हेमिस लगभग 12000 फुट की ऊंचाई पर स्थित है और सिन्धु नदी के पश्चिमी किनारे पर है। कहा जाता है की यह गोम्पा ग्यारहवीं सदी या उससे भी पहले का है और इसकी पुनर्स्थापना लद्दाखी राजा सेंनग्गे नामग्याल ने 1672 में करवाई थी। यह गोम्पा महायान बौध समुदाय के द्रुकपा शाखा से सम्बन्ध रखता है। और मठों के मुक़ाबले यह सबसे बड़ा और सबसे सम्पन्न मठ है।

प्रस्तुत हैं कुछ तस्वीरें मुकुल वर्धन के सौजन्य से :










Wednesday 2 September 2015

दो कूबड़ वाले ऊंट

कहावत है कि ऊंट रे ऊंट तेरी कौन सी कल सीधी ? इन  दो कूबड़ वाले ऊंटों को देख कर लगता है कि ये कहावत बिलकुल सही है ! भारत में ये दो कुब्बे ऊंट केवल लद्दाख की नुब्रा घाटी में ही पाए जाते हैं. वैसे भी दुनिया में दो कुब्बे ऊंट कम ही स्थानों पर पाए जाते हैं और ये सभी स्थान ठन्डे रेगिस्तान हैं - गोबी मरुस्थल मंगोलिया, अल्ताई पहाड़ियां रूस और तक्लामाकन मरुस्थल चीन. इन ऊँटों की संख्या घटती जा रही है और ये प्रजाति लुप्त होने के कगार पर है.

दो कुब्बे ऊंट को जीव विज्ञान में camelus bactrianus कहते हैं और आम भाषा में बैक्ट्रियन ऊंट कहते हैं. यह लगभग 40 - 50 साल तक जीता है. वयस्क ऊंट की कूबड़ तक की ऊंचाई दो मीटर से ऊपर भी जा सकती है. सिर्फ कूबड़ ही 30 इंच तक का हो जाता है. इसका वजन सात सौ से लेकर एक हजार किलो तक हो सकता है. रेगिस्तान का ये जहाज 60 - 65 किमी प्रति घंटे की दौड़ भी लगा लेता है. सामान्यत: इस की चाल 30 - 35 किमी प्रति घंटे की रहती है.

नुब्रा घाटी लगभग 10,000 फीट की ऊंचाई पर लद्दाख में स्थित है. घाटी में पहुँचाने के लिए लेह से खार्दुन्ग-ला होते हुए जाया जा सकता है. घाटी के मुख्य स्थान या बड़े गाँव हैं डिस्किट और हुन्डर. डिस्किट लेह से 150 किमी दूरी पर है. यहाँ शयोक नदी और नुब्रा नदी की घाटियाँ हैं. हुन्डर के आस पास रेत के बड़े बड़े टीले हैं. घाटी में नदी के किनारों पर हरियाली है जहां ये दो कुब्बे ऊंट चरते हुए देखे जा सकते हैं.

कुछ तस्वीरें मुकुल वर्धन के सौजन्य से :

दो कूबड़ वाले ऊंट 

दो कुब्बे ऊँट सवारी बैठाने के लिए तैयार 

एक कूबड़ हो या दो, इंसान सवारी के लिए हमेशा तैयार है

नुब्रा घाटी, लद्दाख